Sunday 14 December 2008

आर्थिक मंदी और आईटी कंपनियों का हालचाल...!

मंदी के इस दौर कारपोरेट जगत की पहली चिंता और सबसे बड़ी चिंता बचे और बने रहने की है। कुछ कारपोरेट के लिए यह समय होगा - अनपेक्षित अवसरों का। इन समय में एक ही चीज़ मायने रखेगी - बचे और बने रहे के लिए या अवसरों का फ़ायदा उठाने में - कैश। कैश इज किंग। इस मंदी का आकर और प्रकार अपने में इतना बड़ा है कि सारे सेक्टरों को अपने में समाहित कर लिया है। या फ़िर, इसके रिप्पल इफेक्ट ( ripple effect) से बच नहीं पायें हैं।
आज देश कि ज्यादातर आईटी कंपनी बॉडी-शौपिंग और ऑफ़-शोरिंग के ज़माने से आगे बढ के पश्चिमी कंपनी को चलने वाले इंजन कि तरह बन गए हैं। आमदनी का ८० फीसदी हिस्सा पश्चिमी कंपनी को ऐसी ही आवश्यक सेवाएँ देने आता है। अगर, लेहमन ब्रदर की तरह पश्चिमी कारपोरेट दिवालिया नहीं होते हैं तो - ऐसे आवश्यक सेवाओं को हटाना नामुमकिन सा है। कुछ छोटी कंपनी जो अपने क्षेत्र में ही शेर हैं - उनपर इस मंदी का असर जरूर पड़ेगा। जयादातर, छोटी कम्पनी२००१ के स्लो-डाउन के बाद की हैं। इनकी सेवाएँ महंगी और गैर-जरूरी हैं।
सो, इनको इस मंदी के दौर में बहुत कुछ सहना पड़ेगा। जिनके पास कैश किंग है वो तो इस वैतरणी को पार लगाग लेंगे। बड़ी कम्पनी - इन्फोसिस, टीसीएस, विप्रो जैसी कंपनी के पास कैश इतना ज्यादा है। दुसरे, इनकी जो कमजोरी थी - consultancy । जिसकी आज के समय पश्चिमी देशों में कोई जरूरत नही है।
ऐसा भी नहीं है कोई असर नहीं पड़ रहा है, इन बड़ी आईटी कंपनी पर।
लेहमन ब्रदर के गिरने के बाद कोई भी मल्टीमिलियन डील किसी भी बड़ी देसी कंपनी को नहीं मिल पाया है. और तो और, पुराने ग्राहक भी धौस देने लगे हैं - अपने सेवा के दाम कम करो या फ़िर हम तुम्हारे जैसे दुसरे के पास जायेंगे. यही नहीं, साल-डर-साल productivity improvement दिखाओ. मतलब यह - लाभ अब तीस और चालीस फीसदी नही होगा. वहीँ अमेरिका और यूरोप कारपोरेट विलय हो रहे हैं - जो लंबे समय में सिस्टम इंटीग्रेसन के काम में बढोतरी करेगा. विदेशी कंपनी के कुछ दिन और बचने के जुगाड़ में अल्पकाल में ऑफ़-शोरिंग के तहत कुछ काम फ़िर से देश में आएगा.
देशी कंपनिया को रख-रखाव के काम से आगे बढ के ट्रांस्फोर्मशनल डील की तरफ़ बढना होगा और अपने खर्च कम करने पड़ेगे. अपनी उपस्तिथि अंतर्राष्टीय स्तर पर दिखानी होगी... चीन से चिली तक, ऑस्ट्रेलिया से आस्ट्रिया तक. जो मदद कर सके स्थानीयकरण में और ग्राहक को विश्वास दिलाने में की हम तुम्हारे साथ है.

Thursday 11 December 2008

मंदी और आउटसौर्सिंग

मंदी के इस दौर में अगर कुछ बढ़ा तो उसमें से एक है - पश्चिम के देशों से हमसे मंदी तो नहीं आयात किया है. पर, हमारी मिडिया और कारपोरेट ने उसके डर को आयत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अब तक हम अमेरिकी और यूरोपियनों से से उनके डर और आर्थिक मंदी से हुए दुःख को तो आउटसोर्स नहीं कर पा रहे हैं. बस तलाश है, एक ऐसे उद्यमी की जो डर और छद्म दुःख के कारोबार को मिडिया और कारपोरेट से लेकर आईटी और बीपीओ की तरह जनजन तक पहुंचाए. बड़े फायदे हैं - कितना बढ़िया होता जब लोगों को लाखों की तनख्वाह मिलेगी - जॉन और मरिया के लिए ५ मिनट रोने के लिए. वैसे भी हमें ख़ुद के लिए रोने की फुर्सत कहाँ मिलती है.टीवी सोप देख और दिखा के थक चुके लोगों के लिए वैकल्पिक नौकरी व्यवस्था हो जायेगी - ट्रेनिंग देने की.अदि- इत्यादि.
हमारे कारपोरेट इसको सबसे अच्छा समय मान रहे हैं - अपने ओपेराशनल इफिसियेसी (operation efficiency) बढ़ाने के लिए, संस्थागत विसंगतियों को दूर करके लिए. बुरे समय के फैद्य उठाने का कारोबार भी जन्म ले चुका है. २००१ के आईटी स्लो-डाउन की याद ताज़ा हो आई है. उस समय भी यही दावे किए गए थे. ये सारे उपाय तात्कालिक साबित हुए - अगर कोई सही भी माने. क्या हुआ उनलोगों का जो २००१ में अपनी नौकरियों से निकले गए थे? या, फ़िर जिन्हें ऑफर लैटर तो मिले थे पर नौकरी नहीं मिल पाई थी? वो सारे लोग आज आईटी में ही विद्यमान है. जिन्हें नौकरी से निकला गया था या नौकरी नहीं मिल पाई थी.. एक साल सडकों की धुल खाने के बाद फ़िर से आईटी में घुस गए झूठे सच्चे अनुभव के सहारे. हम ले-ऑफ़, पिंक-स्लिप जैसे शब्द तो अमेरिका से मादी के साथ आयात कर लायें हैं. पर, उसके साथ करियर काउनसेल्लिंग, सोशल सिक्यूरिटी नही ला पायें.

Sunday 26 October 2008

इस दिवाली क्या खरीदें?

बड़ी असमंजस की स्तिथि है कि इस डूबते शेयर बाज़ार, डूबती अर्थवयवस्था से डरे-सहमे आम आदमी ख़रीदे तो क्या ख़रीदे। अपने आज के लिए कुछ करें या अपने कल को सवारने कि फ़िर से कोशिश कि जाए? दिवाली में दोस्तों रिश्तेदारों के लिए १०० रुपये की पेप्सी की दो-लीटर वाली दो बोतल ली जाए या फ़िर IDFC के दो शेयर ले लें। महगाई बढने के साथ ही प्लान बन चुका था - इस बार दो किलो कि जगह एक किलो ही काजू बर्फी लेंगे. काम तो चल ही जाता है. फ़िर, बासी खाने से क्या फायदा । पर, यह कल या आज वाला सवाल मुह बाये फ़िर से खड़ा हो जाता है - एक किलो काजू बर्फी या टेक महिंद्रा का एक शेयर। पटाकों में तो पहले ही आग लगा चुका था। पर, समझ नहीं पड़ रहा था कि दोस्तों को क्या बताउंगा कि हर साल पटके के लिए मारा-मारी करने वाला इस बार शांत क्यों हो गया है। एक आईडिया का बल्ब जला - कल से "सेव अर्थ" का मेंबर हो गया हूँ। अश्वथामा के दर्द में द्रोणाचार्य भी मर जायेंगे और झूठ भी नहीं होगा। क्या आईडिया है सर जी।

विदेशों की तरह, अब देश में भी नौकरियों से खुले दरवाज़े से लोगों निकलना शुरू हो गया है। तो, डर लगना लाजमी हो गया है - ख़ुद तो कम लगता है - सोफ्टवेयर २००१ के हालात एक बार झेलने के बाद। जहाँ ख़ुद की नौकरी तो नहीं गई थी पर कुछ बहुत ही करीबी दोस्तों की नौकरी चली गई थी। इस बार सब ( सारे नाते रिश्तेदारों को, आस-पड़ोस वालों को ) को आर्थिक मंदी की ख़बर ज्यादा मिलने लगी है। इस से मुझे कोई तकलीफ नहीं है की लोगों को मुझसे ज्यादा खबरें मिलती है। २००१ के दौर में ये खबरें भी होती है पर ई-मेल के द्वारा. तकलीफ यह होती है कि मिडिया आज इन्ही ई-मेलों को समाचार बना के दिखा जाता है। मिडिया ने डर के बाज़ार की बिसात बिछा दी है। अब तो आलू टमाटर खरीदने में डर लगने लगा है। कल इनके दाम भी दुगुने हो गए और नौकरी चली गई तब क्या करोगे?

Wednesday 21 May 2008

देसी कार्पोरेट पर एक विदेशी का सवाल

कल अपनी कंपनी जिसकी मैं नौकरी बजाता हूँ , उसके काम के सिलसिले में एक भावी ग्राहक से बात कर रहा था. आज कल यूरोप के देशों में आईटी vendor के चुनाव में एक सवाल बड़ा अहम् हो गया है. वह सवाल है - आपकी कंपनी सामाजिक जिम्मेदारी (corporate social responsibility) के लिए क्या-क्या करती है? ज्यादातर भार्तिये कंपनी के नुमाइंदों के लिए इस टोपिक पर बात बनने की ही बात होती है. पर गलती से मेरी कंपनी बाकि लोगों से ज्यादा कुछ कर देती है और दिखाती कम है है तो बोलने में एक दंभ रहता है.पर कल, थोड़ा सकते में आ गया था - वह भावी ग्राहक - अंग्रेज़ है और भारत के बारे में थोड़ा ज्यादा जानता है यूरोपियों से, अमेरिकियों से तो बहुत ज्यादा. सवाल था - आप जो जो करते हैं वो तो बहुत बढिया है पर क्या आपको लगता इन्हीं लोगों को जबसे ज्यादा जरूरत है? अगर नहीं, तो आप दलितों, भारत के गांवों और बाकी पिछडे वर्गों के लिए क्यों नहीं कुछ करते हैं?इसी सवाल का जबाब खोजने के लिए मैं टॉप १० देशी आईटी कंपनी के वेबसाइट पर सर्च करने के देखना चाहा कि कौन कितने पानी में है।

ज्यादातर कंपनी के कार्यक्रम पैसे दे के छोटे मोटे कार्यक्रम में नाम बनाने की है लम्बे समय तक चलने वाले काम में अभिरुचि नहीं है। ज्यादातर कार्पोरेट की उदासीनता समाज से थोडी ज्यादा ही नज़र आती है। इन्फोसिस जैसी कंपनी wealth generation को अपने सामाजिक दायित्व के दायरे में ला के छोड़ देती है। इन वर्गों के लिए किसके क्या कार्यक्रम हैं :

१) टी सी एस - देखने से यह लगता है - यह कंपनी सच में कुछ करती है। पूरी रिपोर्ट है की सामाजिक योगदान क्या है और क्या योजनाएं हैं। कंप्यूटर आधारित साक्षरता प्रोग्राम (उर्दू, तेलगु, हिन्दी, बंगला, तमिल, गुजरती, मराठी, ओरिया में उपलब्ध है) से १ लाख लोग लाभान्वित हो रहे हैं। एम्-कृषि (किसानों के लिए मोबाइल आधारित सॉफ्टवेयर) . राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के लिए आंध्र सरकार को सोफ्टवेयर उपलब्ध कराया. ( स्रोत:

http://www.tcs.com/about/corp_responsibility/Documents/TCS_Corporate%20_Sustainability_Report_2007_Final.pdf)

२) इन्फोसिस - अपने आप पर फुले न समाती कंपनी का बस एक कर्यक्रम है। रूरल रिच प्रोग्राम - ५६ स्कूलों में पांचवे, छःठे और सातवें कक्षा के ७७४२ को कंप्यूटर सिखाया गया। (स्रोत: इन्फोसिस वार्षिक रिपोर्ट २००७)

३) विप्रो - इन दस कंपनी में बस विप्रो के वेबसाइट पर कुछ नहीं मिल पाया और गूगल बाबा की मदद लेनी पड़ी। पर जो मिला वो संतोषजनक था। अजीम प्रेमजी फोंदेशन के अलावा के सरे क्रियाकलाप हैं।
Wipro अप्प्ल्यिंग थौत इन स्कूल्स प्रोग्राम के तहत १५ शहरों में १०० से ज्यादा स्कूल में योगदान कर रहे हैं।( स्रोत: http://sca.savethechildren.se/upload/scs/SCA/Publications/Corporate%20social%20responsibility%20and%20childrens%20rights%20in%20South%20Asia.pdf)

४) सत्यम - जो भी दिखा उसमें कुछ शानदार कहने लायक नहीं लगा। या फ़िर कहें तो कुछ भी विशेष नहीं सिवाय सर्व शिक्षा अभियान या १-२ गैर-सरकारी संथाओं से जुड़े रहने के अलावा. (स्रोत: http://www.satyam.com/society/satyam_foundation.asp )

५) एच सी एल - न इनकी साईट पर कुछ कहने लायक बात मिली नहीं गूगल बाबा की कुछ मदद कर पाये। ख़ुद क्या क्या करते हैं आप ख़ुद स्रोत के १९ वे पृष्ठ पर देख सकते हैं। (स्रोत: http://www.hcl.in/files/Corporate%20Presentation%20-%20For%20website%20-%2031%20Mar08.pdf)

६) पटनी कंप्यूटर - इस कंपनी के न वेबसाइट पर कुछ मिला न गूगल बाबा अपना मुह खोल पायें.

७) आई-फ्लेक्स - इनका भी यही हाल। सुनामी और भूकंप पीडितों के अलावा किसी की मद नहीं कर पायें। (स्रोत: http://www.iflexsolutions.com/iflex/company/SocialInitiatives.aspx?mnu=p1s5)

८) टेक-महिंद्रा - बालिकाओं और शिक्षा के क्षेत्र में कुछ काम करते हैं पर उल्लेख नहीं है क्या क्या करते हैं। कोई १५ करोड़ का सीड फंड भी है। (स्रोत: वार्षिक रिपोर्ट)

९) कोग्निजेंट टेक्नोलॉजी - इस अमेरिकी कंपनी के न वेबसाइट पर कुछ मिला न गूगल बाबा अपना मुह खोल पायें। वैसे इनसे मुझे कम से कम उम्मीद नहीं थी।

1०) एम्-फैसिस - कंपनी के वार्षिक रिपोर्ट में HIV/AIDS की जानकारी देने अलावा कुछ भी गिना पाना मुश्किल लगा.

Monday 12 May 2008

विदेशी फिल्में कैसे देखे?

ज्यादातर हम जैसे लोगों के लिए जो मारधाड़ से भरपूर, या नाच गाना वाली मसाला या मेलो-ड्रामा वाली फिल्में देख के बड़े हुए हैं। उनके लिए, बहुत दिक्कत होती है उसी विधा में नए ढंग की फ़िल्म के साथ समन्वय बिठाते हुए उसको सराहना. बहुत सारी विदेशी फिल्में (आज कल तो धूम टाइप देसी फिल्में ) भी अमेरिकी सिनेमा से बहुत ज्यादा प्रभावित होती है. पर, बहुत ऐसी फिल्में हैं जो अभी भी अमेरिकी कला शैली से अछूती हैं. विदेशी फिल्मों से मेरा मतलब नॉन-अमेरिकी (यानि ब्रिटिश इंग्लिश या आस्ट्रेलियन फिल्में चलेंगी) और नॉन-बॉलीवुड फिल्मों से हैं।

सबसे पहले जरूरी है की आप मूड बनाये और सोच लें की आप विदेशी फ़िल्म देख सकते हैं। फ़िर इंटरनेट पर अपना शोध चालू कीजिये। किन भाषाओं या किस देशों में आपकी अभिरुचि है या आप जानते हैं उनके संस्कृति के बरे में? इस सवाल का जवाब - आपको शायद एक लिस्ट के शक्ल में मिलेगा. उसके बाद आप इस लिस्ट में से एक या दो देशों या भाषा को चुन के गूगल बाबा के पास त्राहिमाम करते हुए जा सकते हैं.गूगल बाबा की मदद से एक लिस्ट बन जायेगी कोई २० फिल्मों की. इन फिल्मों की समीक्षा जरूर पढें. सारी २० फिल्मों की जानकारी के बाद १०-१५ से ज्यादा फिल्में नहीं बच सकेंगी...

कम से कम १०-१५ फिल्मों की लिस्ट तो जरूर रखें क्यूंकि इस में से आधी तो आपको आसानी से मिलने से रहीं। लेकिन सवाल आता है ये मिलेंगी कहाँ? अगर आप भारत से बाहर हैं तो डीवीडी रेंटल के इंटरनेशनअल सेक्शन में मिल जाएँगी. देश में बंगलोर, मुम्बई में तो मिल सकती है॥ बाकी जगहों का कोई आईडिया नही है मुझे. फ़िर एक और जगह बचेगी - इंटरनेट... खरीद कर भी देख सकते हैं या चोरी छुपे भी... फिल्मों को चोरी करके देख लेना कोई बड़ा पाप नही है. छोटा तो हम हरदम करते ही रहते हैं. :) ये विदेशी फिल्में अगर पुरानी हुई तो डब मिलेगी. नई हुईं तो सब-टाइटल वाली की ज्यादा उम्मीद है. मेरी माने तो, डब की वाली फ़िल्म से बेहतर होगी सब-टाइटल वाली. अगर सब-टाइटल वाली नहीं मिलती है तो डब वाली लेने में भी बहुत दिक्कत नही है. पर मज़ा थोड़ा कम हो जाएगा. शुरू शुरू में ऐसा लगेगा, सिनेमा देखा जाता है... पड़ा थोड़े ही. मुझे भी ऐसा ही लगा था. पर फ़िर से मेरी ही मानिये... हम लोग दो (या तीन यहाँ पर) काम एक साथ कर सकते हैं यानि सिनेमा देखना, सब-टाइटल पड़ना और तीसरा आवाज़ के शब्दों को अनसुना करते हुए भाव समझना - आराम से कर सकते हैं. भरोसा नहीं हो रहा हो तो दूरदर्शन वाले समय में १:३० बजे वाली फिल्में याद कीजिये. इस लिए सिनेमा लेने के पहले या डाउनलोड करने से पहले सब-टाइटल हैं या नहीं जरूर देख लें. कोशिश रहें की शुरुआत में थियेटर नहीं जा के देखे तो बेहतर हैं.

दूसरी बात - किस तरह की फ़िल्म देखें। शैली और genre की देखी जाए. फ़िर इसमें गूगल बाबा और आप अपनी मदद कर सकते हैं. या फ़िर कोई सिनेमची दोस्त भी मदद कर सकता है. गूगल बाबा से दो तरह की मदद मंगनी होगी - जैसे फ़िल्म जर्मन हुई तो - गूगल के जर्मन साईट पर जा कर जर्मन लोगों की प्रतिक्रिया और समीक्षा जानने की कोशिश करें. पर नॉन-जर्मन समीक्षा और प्रतिक्रिया आपको ज्यादा चीज़ें बतलायेगा. हाँ, एक और बात... अमेरिकी लोगों की प्रतिक्रिया में थोड़ा बट्टा (डिस्काउंट) दे दें. शैली तो आपको ही पसंद करनी होगी. पर शुरू शुरू में प्लेन कॉमेडी न लें अगर उस भाषा या देश के कल्चर के बरे में कम मालूम है. क्योंकि कुछ डायलाग, कथानक, रूपक तो पल्ले ही नहीं पड़ेंगे. मेरे गुरुजनों ने तो रोमांटिक शैली ही चुनीं थी मेरी लिए। समझाना आसान भी होता है - कमोबेश सारी फिल्मों एक सी कहानी होती है।

फ़िल्म को देखने के लिए ऐसे समय का चुनाव करें जब आपको कोई डिस्टर्ब न करें. थोड़ा धयान लगाने होगा सब-टाइटल पढने में. जब मूड ठीक नहीं हो या दिमाग में कुछ चल रहा हो तो जरूरी है ऐसी फ़िल्म न देखें. शुरुआत में ये फिल्में मनोरंजन कम इन्फो-टेनमेंट ज्यादा होंगी. धीरे धीरे, आपका मनोरंजन ज्यादा करने लगेंगी और आप इस फ़िल्म की तकनीक, कला और देश की संस्कृति को भी सराहने लगेंगे. "हैप्पी व्युइंग".

मेरी पहली विदेशी फिल्म

मुझे विदेशी फिल्में देखने का शौक चर्राया था जब दश्वी की परीक्षा के बाद बैठा था। एक दोस्त के भाई थे नए नए अमेरिका से लौटे थे - साथ में कुछ विडियो कैसेट लाये थे. एक थी - "प्रेत्टी वूमन". इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ता था, क्लास में इंग्लिश में बात भी कर लेता था, परीक्षा भी इंग्लिश में दे कर पास हो जाया करता था. पर, इंग्लिश उस समय तक अपनी भाषा न हो कर विदेशी ही थी. उस समय तक सिनेमाची हो गए थे. शायद ही कोई सिनेमा था जो छुटता था. पुरानी फिल्में टीवी पर या अपने बोर्डिंग स्कूल में देख लेता था. नई फिल्में स्कूल से भाग के बगल के कसबे में देख लेता था. पर यह समझ में नहीं आ रहा था की भाई सिनेमा देखने का भी कोई मज़ा होगा जब भाषा ही अपनी न हो. कुछ टू समझ में ही नही आएगा. न्यूज़ व्युज़ तक तो ठीक है अंग्रेज़ी... पर सिनेमा और गाने अपने पल्ले नहीं पड़ते थे... एक आध बार देखने की कोशिश की आधी से अधिक बातें तो समझ में आती ही नही थी. पर दश्वी के बाद - घर पर बैठे थे और इन अमेरिकी भाई जान से बहुत इम्प्रेसड थे ... क्या फर्राटे की अंग्रेज़ी बोलते थे, विदेश की क्या रंगीन कहानिया सुनाते थे... सो उनको इम्प्रेस करने के लिए जब फिल्मों की बात चली तो हम भी खूब बोले - पर अपना ज्ञान तो हिन्दी फिल्मों तक आ के खत्म हो जाता था. क्या तुम लोग अभी भी अभी भी राज कपूर, राजेश खन्ना और अमिताभ में पड़े हुए हो... अंग्रेज़ी देखे हो....? असल फ़िल्म तो हॉलीवुड की होती है... अपना हाल भी वही था "शूल" फ़िल्म के तिवारी जी जैसा... "जब सीन काट लिया त अंग्रेज़ी सिनेमा कैसा?" सोचे चलो - देख लिया जाए अंग्रेज़ी क्या होता है... फ़िल्म चालू हुई - पहला चीज़ नोट किए की गाड़ी उल्टा चल रहा है. अरे भाई, दाहिने तरफ़ सड़क के चल रहा है और पुलिस वाला भी पीछे नहीं पड़ा है. भाई जान खूब हँसे हमपर. बोले बुरबक रह जाओगे तुमलोग अमेरिका है. फ़िर त पुरा सिनेमा देख लिया एक चू त नही निकला मुह से. कितना बार भाई जान से सुना जाए - बुरबक. पर सिनेमा में हिरोइन सुंदर लगी. फ़िल्म में भी काफी melodramatic लगी. टाइटल सोंग खूब पसंद आया. उसके बाद से पता नहीं कितने बार ये सिनेमा देख चुके. पर इतना समझ में आ गया था की विदेशी सिनेमा भी देखा जा सकता है। थैंक यू भाई जान।

Tuesday 6 May 2008

वाईमर (weimar) - १८वी सदी का जर्मन शहर

वायमर जर्मनी में एक छोटा और सांस्कृतिक शहर है। फ्रैंकफर्ट और बर्लिन से लगभग तीन घंटे में पहुँचा जा सकता है। जर्मन इतिहास और संस्कृति में इस १००० साल पुराने शहर का सर्वोच्च स्थान है. समूचा जर्मनी आपको कहीं न कहीं से नया लगेगा और साडी इमारतें दुसरे विश्व युद्ध के बाद की बनी दिखेंगी. पर, वायमर को दूसरे विश्व युद्ध की त्रासदी कम ही झेलनी पड़ी. वायमर के मुख्य वाशिंदों में Bach, Goethe, Schiller, Lizst जैसों का नाम शुमार है.
पर 1919 में पहले विश्व युद्ध के बाद इसी वायमर में वायमर गणराज्य (Weimar Republic ) और जर्मनी में लोकतंत्र की नींव पड़ी. उसके बाद का समय वायमर के दुखी समय का है. वायमर गणराज्य का पतन, हिटलर का उत्थान और फ़िर दूसरे विश्व युद्ध के बाद सोवियत आर्मी का आगमन. जर्मनी के एकीकरण के बाद से वायमर में फ़िर से रंग लौट के आया है. फ़िर से यहाँ के पार्कों में और काफ़ी हॉउस में कलाकारों और बुद्धिजीवियों की भीड़ देखी जा सकती है.


शिल्लर और गोथे की प्रतिमा

गोथे का गार्डन हॉउस पार्क ऍम देर इल्म (Park am der Ilm)

पार्क ऍम देर इल्म (Park am der Ilm) - इसी पार्क में गोथे का गार्डन हॉउस है और इल्म नदी इस पार्क से हो कर बहती है.





पार्क ऍम देर इल्म (Park am der Ilm) - इसी पार्क में गोथे का गार्डन हॉउस है और इल्म नदी इस पार्क से हो कर बहती है.









शेक्सपियर की प्रतिमा पार्क ऍम देर इल्म में... (मुझे पूछने पर पता नहीं चला की इनके पाँव के निचे खोपडी क्यों पड़ी है.

होटल एलेफैंत की एक बालकनी (इसी बालकनी पर हिटलर खड़ा हो के लोगों को संबोधित करता था)




वायमर का माल - अत्रियम । मॉल में भी कला दिख जाती है।









दूसरे विश्व युद्ध के सोवियत सिपाहियों की सिमेट्री । हर पत्थर पर ६ नाम हैं। तीन एक तरफ़ ३ दूसरी तरफ़। इस स्थल के गेट पर का कुंडा हसिया-हथोड़ा की सकल का बना हुआ है। तस्वीर नहीं लगा पा रहा हूँ.








ग्राफिती - स्ट्रीट आर्ट।










एक था (है?) कार्ल मार्क्स ...!

कल यानि ५ मई को कार्ल मार्क्स की १९०वी सालगिरह थी. कम्युनिस्ट मनिफेस्तो जो १८४८ में प्मर्क्स ने लिखा था, उस में कहा गया है कि कैपितालिस्म (पूंजीवाद) के फैलाव के बरे में १५० साल बाद ही सही से मालूम पड़ेगा. इस परिपेक्ष्य में कार्ल मार्क्स और उनकी कृतियाँ - दास कैपिटल, कम्युनिस्ट मनिफेस्तो कुछ निराली चीज़ें हो जाती है. सबसे अच्छी बात यह है कि मार्क्स कि पूंजीवाद पर पकड़ - उसके बार बार संकट से गुजरने कि बात. आज के दौर में जब फ़िर से ग्लोबल डिप्रेशन, फ़ूड क्रैसिस कि बात हो रही है. तब तो मार्क्स कि प्रासंगिगता थोडी और बढ जाती है.मार्क्स कि बातों में जिन बातों कि अनदेखी हो गई है उनमें से एक है मिडिल क्लास. यह वह वर्ग है जो कभी शोषित और शोषक के बीच दीवार बन जाता है. या ख़ुद शोषित और शोषक बनता रहता है. हर किसीके लिए कार्ल मार्क्स के अपने मायने होंगे याद करने या नहीं करने के लिए. पर मैं उन्हें याद रखना चाहूँगा. एक पूंजीवाद के आलोचक के रूप में. अगर फ़िर से हम मार्क्स कि उक्तिया या सुक्तिया पढें तो हमारे आज के बारें में कहती हैं. तो शायद उन्ही पन्नों में आज कि समस्यायों का हाल भी होगा... पूंजीवादी तरीके से...

Monday 7 April 2008

11'09"01 - September 11 (बहुभाषीय फ़िल्म)

11'09"01 - September 11 (बहुभाषीय फ़िल्म)
ग्यारह अंतर्राष्ट्रीय फिल्मकारों को Alain Brigand (फ्रांसीसी प्रोड्यूसर) ने ११ सितम्बर २००१ के आतंकवादी हमले पर फ़िल्म बनाने के लिए कहा। इस फ़िल्म में सारी कलात्मक स्वतंत्रा दी गई सिवाय इसके कि हर फिल्म 11 मिनट ९ सेकंड और एक फ्रेम की होगी। यह फिल्मों का गुलदस्ता कुछ अनछुई भौगोलिक, सांस्कृतिक और कलात्मक परिपेक्ष्य ले के आता है सितम्बर ११ के घटना को ले कर। हर फ़िल्म अपने आप में एक प्रतिसाद है - राजनितिक, वैश्लेषिक या कलात्मक। 11'09”01 शायद बुरी तरह से पिट जाती है इस घटना को saapekhon को या उसके बाद के परिदृश्यों को उजाघर करने में। पर, कम से कम एक संवाद बनाने की कोशिश की गई. कुछ ११ नामी गिरामी फिल्मकारों ने पश्चिमी मीडिया के आक्रामकता को चुनौती दी है और थोड़ा भोथा जरूर किया है. फिल्में क्वालिटी और विषयवस्तु में बहुत भिन्न हैं. दो फिल्में अमेरिका के अन्य आतंकी सहभागिता का हवाला देती हैं. दो फिल्मों में दो और पुरानी ऐसी ही घटना की चर्चा है.
1) इरान - समीर मख्माल्बफ़ की इरानी सेगमेंट में एक शिक्षिका इरान के एक रिफ्यूजी कैंप में बच्चों का स्कूल चलाती है. वहाँ के वयस्क इस घटना के बाद अमेरिकी हमले की आशंका में है पर बच्चे इन सब से दूर अपने सरलता में मग्न हैं. शिक्षिका दो मिनट का मौन करवाती है इस घटना को लेकर पर बच्चे अपने को is घटना से आत्मसात नहीं कर पाते हैं. उनकी दुनिया बस उसी कैंप के दुखदायक घटना पर है. शिक्षिका बच्चों को ईट्ट भट्ठा की चिमनी को उपर दिखाती है. और बच्चों को समझती है की टॉवर क्या है और उसका गिरना क्या है?
एक शब्द - फ्रेश.

2) फ्रेंच - Claude Lelouch की फ्रेंच सेगमेंट मुझे सबसे बेवकूफी पूर्ण और अगंभीर लगी। इस फ़िल्म ने इस घटना के चारों तरफ़ एक रोमांटिक गल्प खड़ा करके, इस त्रासदी और फ़िल्म के अन्य राजनितिक निष्कर्ष कम करने की कोशिश की है. फ़िर भी, यह एक कहानी है - मूक फ्रांसीसी लड़की और उसके अमेरिकी बॉयफ्रेंड के बीच की प्यार-तकरार की. इस घटना को पृष्ठभूमि में लेकर. पर इस फ़िल्म में टीवी के रोल को रेखांकित करने की कोशिश जरूर दिखी है.
एक शब्द - बेकार

3) Egypt (मिश्र) - Yousseff Chahine की इस सेगमेंट में एक फ़िल्म डायरेक्टर बिना किसी जरूरी अनुमति के WTC टॉवर के पास से पुलिस द्वारा भगा दिया जाता है। अगले दिन मीडिया के सवालों से कैसे दूर रखता है। फ़िर इतिहास के उन पन्नों को खंघाने की कोशिश होती है की क्यों बेरुत में ४०० अमेरिकी पर हमला कर १९८५ में को मारा गया. यह फ़िल्म के तरफ़ अमेरिकी आतंक और दूसरी तरफ़ दुनिया में उसके प्रतिरोध को दिखाती है.
एक शब्द - महत्वाकांक्षी

4) बोस्निया - Danis Tanovic की यह सेगमेंट संवाद के लिहाज से सबसे आगे है। यह कहानी सबसे ज्यादा सोचने पर मजबूर करती है. यह कहानी का आधार है -१९९५ में बोस्निया में हुए सर्ब हमलों में मुस्लिमों पर हुए अत्याचार है. एक तीस साल रेडियो पर खबरें सुन कर अपने छोटे गाँव के मुख्य चौक की तरफ़ जाती है. वह के अपांग पुरूष से मिलती है जो शायद गाँव का अकेला मर्द है. वह कहता है - आज ज्यादा महिलाएं नही आएगी उसकी मासिक यादगार सभा में. क्यूंकि हर कोई समाचार सुनने में लगा हुआ होगा. हर महीने के ११ तारीख को इस गाँव की महिला ११-जुलाई-१९९५ को हुए घटना की याद में मानती हैं. वो कहती है की टीवी न्यूज़ वाले इस घटना के बाद उसकी सम्वेंदा समझने आयेंगे. वह ग़लत है, कोई टीवी वाला नही आता है पर वो महिलाएं अपना मार्च करतीं हैं.
एक शब्द - तीक्ष्ण

5) बुर्किना-फासो - Idrissa Ouedrago की यह सेगमेंट को अगर सबसे मीठा कहें तो कुछ ग़लत नही है। इस कहानी में वयस्कों की कोई जगह नही है। एक गरीब लड़का एक पुराने छोटे से बाज़ार में रेडियो पर समाचार सुनता है कि २५ मिलियन डॉलर का इनाम मिलेगा जो ओसमा बिन लादेन को पकड़वाने के लिए सूचना देगा. उसकी माँ बीमार है और उसके इलाज के लिए पैसा चाहिए. यह लड़का एक अबर मुस्लिम को बाज़ार में देखता है जो ओसामा जैसा दिखता है. वह और उसके और स्कूली साथी उस ओसामा की विडियो फ़िल्म बनाने में लग जाते हैं ताकि उसको पकड़वाया जा सके और इनाम की रकम से माँ के इलाज के साथ कुछ अच्छे कार्य किए जा सके. ये लड़के ओसामा का पीछा करते हुए एअरपोर्ट तक आ जाते हैं जहाँ ओसामा flight पकड़ रहा होता है. पुलिस वाले को वह सबूत दिखाने की कोशिश करते हैं ... पर...
एक शब्द - मीठा-खट्टा

6) ब्रिटेन - Ken Loach के इस सेगमेंट में एक और ११ सितम्बर को जिलाने की कोशिश की गई है। यह है १९७३ का ११ सितम्बर। उस दिन, General Augusto Pinochet (चिली के तानाशाह), सीआईए की मदद से चिली की सत्ता हथिया लेता है. और उसकी सत्ता में दो दशको तक खूनी खेल खेला जाता है जिसका मकशाद है - समाजवादी और लोकतांत्रिक लोगों का खात्मा. इस फ़िल्म में B&W/कलर में बखूबी documentry की शक्ल में एक Vladimir Vega के अनुभवों को दोस्तों को लिखे जा रहे है पत्र में पेश किया गया है. Vladimir Vega अभी भी देश से बाहर रह रहा है उस समय की घटनाओ से आज तक आहत है. काफी हद तक इसको एक पॉलिटिकल फ़िल्म कह सकते हैं.
एक शब्द - भिन्न

7) मेक्सिको - Alejandro Gonzalez Inarrito की यह सेगमेंट सबसे गूढ़ है। यह फ़िल्म सबसे ज्यादा क्रिएटिव है. इस फ़िल्म में मूलत: साउंड इम्प्रेशन और हाईजैक विमान से हुए फ़ोन से काले स्क्रीन पर आ जाती है. अंत के समय स्क्रीन थोड़ा खुलता है और WTC टॉवर से गिरते लोग और गिरती इमारत दिखाती है. अंत में अरबी में एक सवाल आता है - "Does God's Light blind us or guide us?" (आध्यात्म/ धर्म की रौशनी हमे आगे बढाती है या अँधा बनती है?).साउंड इम्प्रेशन और मिक्सिंग बिना कहानी के भी और विसुअल के भी बहुत कुछ कह जाती है.
एक शब्द - क्रिएटिव

8) इसराइल - Amos Gitai के इस सेगमेंट में तेल अवीव के एक आम दिन एक टीवी रिपोर्टर की बीट पर एक धमाका होता है। यह एक अनंक्वादी हमला है. यह इस रिपोर्टर के लिए एक बहुत अच्छा मौका है अपने को दिखाने का. वह सरे लोगों को और भीड़ में धक्का मुक्की करके घटना को टीवी के लिए कवर करने की कोशिश करती है. पर, उसी समय WTC की घटना हो जाती है. यह फ़िल्म कभी तो स्वाधीन लगती है और बेतुकी लगती है. समझ में नहीं आता है की इसराइल की समस्या बड़ी है या क्या दिखाने की कोशिश की है. फ़िर कुछ सोचने पर लगता है कि यह एक बढिया Satire है. एक दुखद घटना का भी टीवी रिपोर्टर के एक स्टोरी से ज्यादा कुछ नही है. हम अपने से आगे कुछ सोच नही पाते है.
एक शब्द - satire

9) भारत -- Mira Nair की यह सेगमेंट एक सच्ची कहानी पर आधारित है। एक मुस्लिम पाकिस्तानी माँ का बेटा अपने काम पर जाते समय गायब हो जाता है. और वह दिन है ११ सितम्बर २००१. जगह - न्यू यार्क का मिडिल क्लास इलाका. पहले तो पडोसियों से सहानभूति मिलती है. बाद में FBI आकर परिवार वालों से पूछ ताछ करती है और मिडिया उसको आतंकवादी घोषित कर देता है. बाद में मालूम चलता है - उस लड़के ने WTC टॉवर से लोगों को निकलने में अपनी जान गँवा दी. यह फ़िल्म कोई भी एक्सपेरिमेंट नही है... कहानी भी काफी जानी पहचानी है. इससे लोकल aftermath की एक कहानी की तरह देखा जा सकता है.
एक शब्द - श्रधांजलि

10) अमेरिका -- Sean Penn की यह सेगमेंट सबसे आउट-ऑफ़-टच लगी। पर इससे एक fallacy के रिलेशन में भी देखा जा सकता है। एक बुड्डा अकेला आदमी WTC की परछाई में अपने फ्लैट में रह रहा होता है. वह आदमी अब भी यही सोचता है की उसकी बीवी उसके साथ है. और उससे बेद पर बतियाता रहता है अपने अंधेरे से कमरे और बेड पर. टॉवर का गिरना उसके घर को रौशन करता है और सच्चाई में लता है.
एक शब्द - निराशाजनक

11) जापान - Shohei Imamura की इस सेगमेंट में त्रासदी का एक और रंग दिखाया गया है। एक बारगी लगता है इसका क्या रिश्ता है ११ सितम्बर से. १९४५ में एक जापानी सैनिक एक बाड़े में बंद कर के रखा गया है. युद्ध में वुर मानसिक रूप से बीमार हो जाता है और ख़ुद को सांप समझने लगता है. यहाँ तक की बना बनाया खाना खाने के बदले चूहा पकड़ के खाने लगता है. गाँव के मुर्गे मुर्गियों को खाने लगता है. गाँव के लोग उसको और परिवार को अपमानित करते हैं. एक दिन वह गायब हो जाता है. और उसकी बीवी गायब होते हुए देखती रह जाती है. अंत में स्क्रीन पर आता है - "There is no such thing as a Holy War." (धर्मयुद्ध कुछ नहीं होता है)
एक शब्द - कमेंट

Wednesday 27 February 2008

सपनों की लड़ाई

ड्राइंगरूम के मखमली सोफे,
एसी में बैठ कर
या फ़िर पंखें के डैनों से
बिखरी हवा में...
कुछ भी कह देना ...
कितना आसान सा लगता है...
"जियो ख़ुद के लिए...
अपनों के लिए "

या फ़िर अपने सपनों के लिए..."
सोच बैठता हूँ अकेलेपन में
सपनों के बारे में
ये आते हैं कहाँ से...
और झुंड बना के क्यों आते हैं -
आते हैं इतने सपने तो...
किसी धारावाहिक-से एक बेसिर पैर से जुदा
और अंतर्विरोध में जीते हुए...
क्यों करते हैं उद्वेलित सोच को...

और उद्दंड निरीह जीवन को..
सुना था किसी को टीवी के प्राइम टाइम में
किसी "रैग से रिचेस" -सी रिपोर्ट में
सपनों को सजों के सींचना पड़ता है।
पर मुझे तो -
भागना और पीछा करना पड़ता है
सपनों को अपना बनाने के लिए ...
बगावत करनी होती...
लड़ाई करनी होती है...
हर किसी से दुनिया से - थोडी और कभी कभी
अपनों से ... ज्यादा और हर सामने पर
ख़ुद से ... ताउम्र

Wednesday 13 February 2008

द मोटरसायकिल डायरिस (Diarios de motocicleta) - एर्नेस्तो से चे गुएवारा बनने की कहानी

द मोटरसायकिल डायरिस (Diarios de motocicleta) - एर्नेस्तो से चे गुएवारा बनने की कहानी
द मोटरसायकिल डायरिस एक सीधी सरल फ़िल्म है - युवा चे के १९५० के दशक में दक्षिणी अमेरिकी देशो की यात्रा पर. इस फ़िल्म के मुख्य किरदार हैं - चिली के पठार, Andes पर्वतमाला, धुंधले होते Amazon के तट. यह चे और उसके दोस्त एर्नेस्तो के डायरी पर आधारित यात्रा वृतांत है. पर सबसे अहम् है वह यात्रा जिसमें एक सरल और शांत युवा दिमाग अपने आस पास की चीजों को देख समझ के प्रौढ हो रहा है.
१९५२ में एक युवा लड़का एर्नेस्तो "Fuser" Guevara डाक्टरी की पढाई पुरा होने के पहले, अपने दोस्त अल्बेरतो(Alberto) के साथ एक साहसिक पर मज़ेदार ८००० मील की महाद्विपिये यात्रा पर निकलता है. इस यात्रा का उद्देश्य है -अर्जेंटीना से चिलीहोते हुए, जीवन समझते हुए कोडियों की बस्ती (पेरू) में कुछ समय काम करते हुए वेनेजुएला पहुँचा जाए. यात्रा का माध्यम है - १९३९ की खटारा Norton मोटरसायकिल. यात्रा कठिन है और जोखिम भरा है. पहले दक्षिण की तरफ़ से ऐंडिस पार करते हुए चिली के समुद्री तट पर सफर करते हुए, चिली का मरुस्थल (नाम याद नही है!) पार करके पेरू पहुँचा जाए. फ़िर वहाँ से अल्बेरतो के जन्मदिन पर वेनेजुएला पहुँच जाया जाए. पर खटारा तो खटारा होती है - कई बार ख़राब होते होते - टूट के बिखर जाती है और यात्रा मोटरसायकिल के बजाय पाँव पर पूरी की जाती है और जुलाई महीने में ही वेनेजुएला पहुँच पाते हैं.
इस फ़िल्म का डायरेक्शन, कैमरा लोकेशन अदभुत हैं. प्लोट थोड़ा कमज़ोर लगा पर वो समझ में आता है क्यूंकि चे या एर्नेस्तो ने अपनी डायरी फ़िल्म की कथा के लिए नहीं लिखी थी. न ही किसी क्रिएटिव ने इसके साथ छेड़-छड़ मचाई है. संगीत भी काफी नया है - कम से कम मेरे लिए शायद लोक संगीत है ?
यह फ़िल्म कुछ कुछ धारावाहिक के किस्म की है, चे और एर्नेस्तो के डायरी के पन्नों और उनके घर लिखे पत्रों में चित्रित वर्णन और विक्सित हो रही राजनितिक सोच की वज़ह से. इस फ़िल्म को देखने या इस फ़िल्म को साम्हने या अच्छा लगने के लिए आपको चे या उसकी विचारधारा को जानना या संबध होना जरूरी नही है. इस फ़िल्म का अपने आप में दो दोस्तों के खुले सड़क और जीवन के आनंद और अनुभव की कहानी है. अगर आप चे की टी-शर्ट पहनते हैं या किसी को पहना देखते हैं और सोचते हैं ये कौन है.... या कौन था यह चे बनने के पहले तो यह फ़िल्म आपके लिए जरूर है. कम से कम मैंने तो बहुत एन्जॉय किया. दक्षिण अमेरिका के बारे में में सोच बढी... जिज्ञाषा बढी. एक और सवाल छोड़ जाती - युवा इतना आदर्शवादी क्यों होता है.... और उसके आदर्शवाद में ह्रास क्यों होता जाता है.. सोच समझ बढने के साथ साथ. फ़िल्म का टैग लाइन भी खूब है - “Let the world change you... and you can change the world”.

Tuesday 12 February 2008

गुडबाय लेनिन! ---- एक और जर्मन फ़िल्म

कल फ़िर से मैंने एक और जर्मन फ़िल्म देखा. अच्छी लगने लगी हैं जर्मनी की फिल्में कथानक और पेश करने का तरीका एकदम बांधे रखता है. जर्मन नहीं आती फ़िर भी सब- टाइटल में भी देख के मज़ा आ जाता है. यह फ़िल्म है - बर्लिन की दीवार के ढहने के समय और जर्मन गणराज्यों के एकीकृत होने के सालों में. किसी भी ऐतिहासिक घटना पर इससे बढिया satire (हिन्दी शब्द नही मालूम है!) और कोई नहीं हो सकता है. Rip Van Winkle-style satire है यह फ़िल्म. कहानी कुछ इस प्रकार है - नायक Alexander Kerner ने अपनी माँ को हमेशा एक पूर्वी जर्मनी के कट्टर समर्थक के रूप में देखा है. Alexander की माँ Christiane Kerne अपने बेटे को सरकारी विरोध रैली में देख के ८ महीने के लिए कोमा में चली जाती है. इन ८ महीनों में जर्मनी का एकीकरण हो जाता है. इस एकीकरण के साथ सतह सामाजिक और राजनितिक बदलाव को तो Alexander गले लगा लेता है. माँ की बिगड़ती हालत के कारण Alexander और उसके साथियों को माँ के पुराने कमरे और पुराने समय में लौट के आना पड़ता है. बेटा अपनी माँ के लिए सच्चाई से अलग पूरी दुनिया बसा देता है जो पुराने समय में टिकी हुई है. कुछ कथानक बेजोड़ हैं - पूरी की पूरी न्यूज़ बनाईं जाती है.... पुराने पूर्वी जर्मनी के हिसाब से. पुराने पूर्वी जर्मनी के उत्पादों को माँ के लिए खोज निकालना, कोका कोला के बिल्ल्बोर्ड को माँ से छुपा के रखना. जिस बदलाव के लिए Alexander लड़ाई करता है ... बदलाव आने पर उसी बदलाव को छुपाना की कोशिश करता है.इस फ़िल्म में राजनितिक अंडरटोन बहुत कम है.

एक बेटा का माँ के लिए प्यार और जटिल राजनितिक दशा और दृश्य इस फ़िल्म को उत्कृष्ट बनती है. कुछ सवाल यह फ़िल्म छोड़ जाती है हमारी जेहन में - हम क्या क्या कर सकते हैं अपनों के लिए - उनकी ज़िंदगी बचाने के लिए? हमारी सोच, विचारधारा, पैसे, भौतिकवादी जरूरतों या कहें तो आज़ादी से भी ज्यादा अहम् क्या हैं? हमारा झूठ कब झूठ नहीं है या हमारा छल-कपट कब छल-कपट नहीं है? थोड़े सब्दों में कहने की कोशिश की जाए तो - यह फ़िल्म आपको रुलाती है, हँसाती हैं और बिना पक्ष लिए एक सोच छोड़ के चली जाती है. कोई घटना या पात्र इतिहास नहीं बांटे हैं - हम आप जैसे छोटे लोगों भी अपना इतिहास बनाते हैं और हमें ही झेलना पड़ता है.

Monday 11 February 2008

एक अच्छी फ़िल्म - नोवेयर इन अफ्रीका (Nirgendwo in Afrika)

"One family's tale of a homeland lost... and a homeland found. "यह कहानी है, एक अपारम्परिक यहूदी परिवार की जो अपनी दूरदर्शिता से विश्व युद्ध के पहले जर्मनी छोड़ सकने में सफल हो जाता है. यह परिवार केन्या को अपना घर बनाने की कोशिश करता है. और यहाँ से शुरू होती है एक संवेदनशील फ़िल्म. यह एक बहुभाषीय फ़िल्म हैं और अफ्रीकी, जर्मन, यहूदी जैसे संस्कृति को जीवंत किया है. इस फ़िल्म के ज्यादातर संवाद जर्मन और स्वाहिली में हैं - थोड़ा अंग्रेज़ी भी है. पर सब-टाइटल इतने बखूबी में लिखे हुए हैं कि फ़िल्म कि सार्थकता कम नहीं हो पाती है. इसे २००२ के सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़िल्म का ओस्कर मिला है. पूरी कहानी एक बच्ची के द्वारा बयान कि गई है - पेशे से वकील Walter अपनी पत्नी Jettel और बच्ची Regina के साथ जर्मनी से भाग के केन्या में शरण लेते हैं. वाल्टर एक अंग्रेज़ के फार्म पर काम करने लगता है - जहाँ पानी जैसे मौलिक आवश्यकता की भारी कमी है. आदर्शवादी बाप और बच्ची समय और स्थान से समझौता कर लेते हैं और नई ज़िंदगी को अपना पाते हैं. दोनों स्वाहिली सीखते हैं, स्थानीय संस्कृति और लोगों से सामंजस्य बिठाते हुए ज़िंदगी अपना लेते हैं. माँ अपने पुरानी यादें, छोड हुए घर और वहाँ के लोगों, ऐशोआराम के सोच को नहीं छोड़ पाती है. माँ जर्मनी से जरूरी चीजों की जगह अपने लिए खूबसूरत कपड़े और बर्तन लेके आई हैं और घर पर जर्मनी बोलने पर ही जोर देती है. सबसे आकर्षक जेत्तेल का चरित्र है - जो एक स्वाधीन और परिपक्व सोच बना पाती हैं जीवन और परिवार के बारे में.
इस फ़िल्म में दिल को छू लेने वाले कथानक हैं. ओवुरा - जो पारिवारिक बावर्ची और जेत्तेल का संवाद. १२ सीलिंग कमाना और साहब और मेमसाहब के घर काम करना उससे पारिवारिक इज्ज़त देता है. वही घर से ओवुरा का घर, तीन बीवी और ६ बच्चों से दूर रहना फ़िर भी इज्ज़त पाना और उसकी छोटी जरूरतें झील की मछलियों से पूरा हो जाना. पश्चिम और पूरब के द्वंद को समझाने की कोशिश करता है. वहीं, पति-पत्नी और शादी के कई आयाम को सही सही चित्रित किया है. रेगिना का अपने अंग्रेज़ प्रिंसिपल से बातचीत - जिसमें वो कहती है की वह पढने में इसलिए अच्छा करती है क्यूंकि उसके पिता ६ पौंड की आय में ५ पौंड की फीस देते हैं. यहूदी बच्चों से अंग्रेज़ मिशनरी स्कूल में अलग सा बर्ताव. एक मज़बूत कहानी और पत्रों के साथ यह फ़िल्म प्रवासी परिवारों के दोहरी ज़िंदगी से अलग होने और स्थानीय जीवन को आत्मसात करने की सीख दे जाती है. अन्तिम दृश्य तो बहुत ही खूब है. समूची फ़िल्म, कैमरा और दृश्य १९४० के केन्या के जान पड़ते हैं.

Thursday 7 February 2008

जिंदगी रेस है..!

अभी अभी एक दोस्त(कॉलेज के दिनों के) से बात हो रही थी. बस बात होने लगी... पीयूष ये कर रहा है... मानव वहाँ अमेरिका में है... अंशुल की शादी ठीक हो गई... ब्रज के घर ले लिया...मुझे पूछा गया ... तुमने क्या किया... शादी किए?, - हाँ. घर लिए? - ना. भाई जिंदगी रेस है... कितनों से पीछे रह गए.... थोड़ा तेज चलो... कब तक स्लो मोसन में ही रहोगे.... ट्वेन्टी ट्वेन्टी के ज़माने में टेस्ट मैच में लगे हुए हो...बात खत्म हुई... फ़ोन रखा ... तब से सोच रहा था... क्या किया.. अभी तक... थोडी ग्लानी हुई.... फ़िर सोचा... छोडो जो नही किया क्या सोचा जाए... क्या करें ये सोचा जाए तो बेहतर होगा.... इसी उधेड़बुन में लगा था... कैसे तेज़ चला जाए... दौड़ के भी कुछ उखाडा नहीं जा सकता है अब. सारी बुद्धि लगाई पर जबाब नहीं मिल पाया.... सोचा चलो ब्लॉग तो लिख दो... दर्द कम होगा... समय कट जाएगा... बात आई गई खत्म हो जायेगी.... जिनकी रेस है वो दौडें... हम तो जिंदगी के मजे ले रहे हैं... :)
वैसे ही हमारी ज़िंदगी - पिछली पीढ़ी के मुकाबले ज्यादा तेज़ हो गई है... मुझे याद है पापा अपनी पीढ़ी के हिसाब से ज्यादा देर तक काम करने वाले माने जाते थे... क्यूंकि ७ बजे तक घर पहुच पाते थे.. एक हम हैं... रात नौ बजे घर पहुँच गए तो गनीमत है.... पर नौ बजे पहुँच के अच्छा लगता है कि आज ऑफिस में रुकना नहीं पड़ा. पता नहीं पिछली बार किस दिन बिना अलार्म के उठा था. इस तेज़ रफ्तार जिंदगी से एकदम मिलाने के लिए... फास्ट फ़ूड के चक्कर में फंस जाना पड़ा है... पता नहीं कितने दिन हो जाते हैं - अगर वीकएंड में ऑफिस जाना पड़े तो एक दाल, भात, चटनी, चोखा, सब्जी वाला खाना खाए हुए. हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस से होते हुए... टाइम्स ऑफ़ इंडिया कि सनसनीखेज खबरों पर भी नज़र फिसलने कि फुरसत नहीं रहती है... लगता है थोड़ा ऑफिस के काम या किसी सोफ्त्वारे कोड के बरे में सोच लिया जाए पड़ लिया जाए तो बेहतर होगा.... कहानिया तो छोड़ ही दीजिये... न्यूज़ भी कहानियाँ हो गई हैं... खाने, पढने कि बात तो छोड़ दीजिये.... शादियाँ भी फास्ट तरीके से इंटरनेट और चैट से फिक्स से होने लगी हैं.... कुछ साल पहले फिनलैंड में ek तेलगु सहकर्मी से मिला था .... मालूम पड़ा कि मंगनी कि रस्म वेब कैम पर सम्प्पन हुई थी... दो साल के बच्चे को प्ले स्कूल में ठेलने लगते हैं.... पता नहीं कब ऐसे रेस में हम दौड़ते रहेंगे.... और कब तक - छोटी छोटी तुच्छ दिखाने वाली परन्तु अनमोल और विस्तृत जीवन को रेस कि भेट चढ़ाते रहेंगे. शायद, कुछ दिनों में जिंदगी में अनुभव करना ही भूल जायें.

Monday 7 January 2008

तारे ज़मीन पर - क्या नया, क्या पुराना?

आमिर खान निर्देशित फ़िल्म "तारे ज़मीन पर" हालिया प्रदर्शित हुई है और इंटरनेट पर इसको प्रवर्तक फ़िल्म करार देने कि होड़ मची है. इस फ़िल्म में कुछ चीज़ें बड़ी आसानी से कह दी गई है, पर कुछ मार्ग दर्शक बनने में इस फ़िल्म में कुछ कमियां है. पर, इस फ़िल्म को संवेदनशील जरूर कहा जा सकता है. इस फ़िल्म जो चीज़ें बखूबी कही गई है वो हैं -
१) समाज में सफलता की घुड़दौड़.
२) माँ-बाप के आकाँक्षाओं का शिकार होता बचपन
३) शैक्षिक परिवेश की खामिया - तिवारी सर को रटारटाया जबाब चाहिए, आर्ट टीचर का चालक फ़ेंक के मारना, सृजनात्मकता का कोई जगह नहीं होना.
४) दंड आधारित अनुशाषण सोच.
५) मध्यम वर्गीय परिवार की सफलता की भूख
६) हर बच्चे की अलग अलग जरूरत होती है और उसको थोड़े ध्यान और ज्ञान से मुख्यधारा में जोडा जा सकता है - ईशान राम निकुम्भ सर से अपने को इसलिए जोड़ पता है उनको अपने जैसा पाता है. पर शायद ही अपने को आइंस्टाइन और दा विन्ची से जोड़ पाता है.

जो बातें नहीं मुझे खटकी. उनमें से एक है - ईशान और राम निकुम्भ सर लड़ रहे हैं इस घुड़दौड़ की मानसिकता से. अगर ये कहें की ईशान राम निकुम्भ सर के मेहनत के बाद भी किस तरह पडी लिखी कर के बस पास भर कर पाता पर सबसे अच्छा पेंटर नहीं बन पाता तो क्या? यहाँ पर यह फ़िल्म बस एक बॉलीवुड फ़िल्म हो जाती है कि नायक हमेशा अव्वल करता है. और इस फ़िल्म भी, ईशान और राम निकुम्भ सर उसी घुड़दौड़ में शामिल हो जाते हैं जिससे वो लड़ने निकलते हैं.

बोर्डिंग स्कूल एक डरावनी जगह है - बच्चों को दंड देने के लिए वहाँ भेजा जाता है. यह बात बहुत पची नहीं. मेरे हिसाब से इस फ़िल्म में कथानक के हिसाब से मध्यम वर्गीय परिवार पेट काट के अच्छी शिक्षा के लिए बोर्डिंग स्कूल भेजता है. शैक्षिक परिवेश में एक भी अच्छी बात नहीं दिखाई गई है. पर वहीं राजन दामोदरन को लंगडा होते हुए भी स्कूल में दिखाया गया है.

एक और बात बहुत नहीं जमी - आत्मविश्वास का सफलता से जोडा जाना. अपने स्कूल और कॉलेज के सालों में हमें देखा कि बहुत से ऐसे बच्चे जो सफल होते हैं - सामाजिक मापदंड से - स्कूल के रिजल्ट में उनमें से कई आत्मसंशय कि स्तिथि में रह जाते हैं. मेरे हिसाब से सफलता एक आपेक्षिक शब्द है और उसका विश्वास से कोई लेना देना नहीं है.

ज्यादातर मध्यमवर्गीय माँ-बाप अपने बच्चों को बड़ा करते समय बहुत सारी चीज़ें सिखाते हैं. जरूरी नहीं है उन्हें सारी चीजों का ज्ञान हो और बच्चों की सारी समस्यायों का निराकरण कर सकें. बाप को कम से कम इस फ़िल्म में विल्लन ही दिखाया गया पर एक बिन्दु रेखांकित करने योग्य है की बाप अपने बच्चों के लिए जो भी बन पाता है वो करने की कोशिश करता है. बस थोड़ा सा सो कॉल्ड - जेनरेशन गैप है. :) कभी कभी तो ऐसा लगने लगता है ... यह फ़िल्म अनुशासन और मेहनत के विरोध में है. बच्चा जो करता है करने दो की तर्ज़ में. “तितली से मिलने जाते हैं पेडों से बातें करते हैं”

यह फ़िल्म हम जैसे लोगों की तरह बस सवाल उठा के छोड़ जाता है... उसका जबाब कैसे खोजे वह नहीं कर पाता है. बच्चे को Dyslexia पर दूर कैसे करें मालूम नहीं. इस फ़िल्म को "स्वदेस" की कड़ी में इस लिए नहीं रख पा रहा हूँ... की उसमें समस्याएं भी हैं और निदान भी.