Wednesday 27 February 2008

सपनों की लड़ाई

ड्राइंगरूम के मखमली सोफे,
एसी में बैठ कर
या फ़िर पंखें के डैनों से
बिखरी हवा में...
कुछ भी कह देना ...
कितना आसान सा लगता है...
"जियो ख़ुद के लिए...
अपनों के लिए "

या फ़िर अपने सपनों के लिए..."
सोच बैठता हूँ अकेलेपन में
सपनों के बारे में
ये आते हैं कहाँ से...
और झुंड बना के क्यों आते हैं -
आते हैं इतने सपने तो...
किसी धारावाहिक-से एक बेसिर पैर से जुदा
और अंतर्विरोध में जीते हुए...
क्यों करते हैं उद्वेलित सोच को...

और उद्दंड निरीह जीवन को..
सुना था किसी को टीवी के प्राइम टाइम में
किसी "रैग से रिचेस" -सी रिपोर्ट में
सपनों को सजों के सींचना पड़ता है।
पर मुझे तो -
भागना और पीछा करना पड़ता है
सपनों को अपना बनाने के लिए ...
बगावत करनी होती...
लड़ाई करनी होती है...
हर किसी से दुनिया से - थोडी और कभी कभी
अपनों से ... ज्यादा और हर सामने पर
ख़ुद से ... ताउम्र

Wednesday 13 February 2008

द मोटरसायकिल डायरिस (Diarios de motocicleta) - एर्नेस्तो से चे गुएवारा बनने की कहानी

द मोटरसायकिल डायरिस (Diarios de motocicleta) - एर्नेस्तो से चे गुएवारा बनने की कहानी
द मोटरसायकिल डायरिस एक सीधी सरल फ़िल्म है - युवा चे के १९५० के दशक में दक्षिणी अमेरिकी देशो की यात्रा पर. इस फ़िल्म के मुख्य किरदार हैं - चिली के पठार, Andes पर्वतमाला, धुंधले होते Amazon के तट. यह चे और उसके दोस्त एर्नेस्तो के डायरी पर आधारित यात्रा वृतांत है. पर सबसे अहम् है वह यात्रा जिसमें एक सरल और शांत युवा दिमाग अपने आस पास की चीजों को देख समझ के प्रौढ हो रहा है.
१९५२ में एक युवा लड़का एर्नेस्तो "Fuser" Guevara डाक्टरी की पढाई पुरा होने के पहले, अपने दोस्त अल्बेरतो(Alberto) के साथ एक साहसिक पर मज़ेदार ८००० मील की महाद्विपिये यात्रा पर निकलता है. इस यात्रा का उद्देश्य है -अर्जेंटीना से चिलीहोते हुए, जीवन समझते हुए कोडियों की बस्ती (पेरू) में कुछ समय काम करते हुए वेनेजुएला पहुँचा जाए. यात्रा का माध्यम है - १९३९ की खटारा Norton मोटरसायकिल. यात्रा कठिन है और जोखिम भरा है. पहले दक्षिण की तरफ़ से ऐंडिस पार करते हुए चिली के समुद्री तट पर सफर करते हुए, चिली का मरुस्थल (नाम याद नही है!) पार करके पेरू पहुँचा जाए. फ़िर वहाँ से अल्बेरतो के जन्मदिन पर वेनेजुएला पहुँच जाया जाए. पर खटारा तो खटारा होती है - कई बार ख़राब होते होते - टूट के बिखर जाती है और यात्रा मोटरसायकिल के बजाय पाँव पर पूरी की जाती है और जुलाई महीने में ही वेनेजुएला पहुँच पाते हैं.
इस फ़िल्म का डायरेक्शन, कैमरा लोकेशन अदभुत हैं. प्लोट थोड़ा कमज़ोर लगा पर वो समझ में आता है क्यूंकि चे या एर्नेस्तो ने अपनी डायरी फ़िल्म की कथा के लिए नहीं लिखी थी. न ही किसी क्रिएटिव ने इसके साथ छेड़-छड़ मचाई है. संगीत भी काफी नया है - कम से कम मेरे लिए शायद लोक संगीत है ?
यह फ़िल्म कुछ कुछ धारावाहिक के किस्म की है, चे और एर्नेस्तो के डायरी के पन्नों और उनके घर लिखे पत्रों में चित्रित वर्णन और विक्सित हो रही राजनितिक सोच की वज़ह से. इस फ़िल्म को देखने या इस फ़िल्म को साम्हने या अच्छा लगने के लिए आपको चे या उसकी विचारधारा को जानना या संबध होना जरूरी नही है. इस फ़िल्म का अपने आप में दो दोस्तों के खुले सड़क और जीवन के आनंद और अनुभव की कहानी है. अगर आप चे की टी-शर्ट पहनते हैं या किसी को पहना देखते हैं और सोचते हैं ये कौन है.... या कौन था यह चे बनने के पहले तो यह फ़िल्म आपके लिए जरूर है. कम से कम मैंने तो बहुत एन्जॉय किया. दक्षिण अमेरिका के बारे में में सोच बढी... जिज्ञाषा बढी. एक और सवाल छोड़ जाती - युवा इतना आदर्शवादी क्यों होता है.... और उसके आदर्शवाद में ह्रास क्यों होता जाता है.. सोच समझ बढने के साथ साथ. फ़िल्म का टैग लाइन भी खूब है - “Let the world change you... and you can change the world”.

Tuesday 12 February 2008

गुडबाय लेनिन! ---- एक और जर्मन फ़िल्म

कल फ़िर से मैंने एक और जर्मन फ़िल्म देखा. अच्छी लगने लगी हैं जर्मनी की फिल्में कथानक और पेश करने का तरीका एकदम बांधे रखता है. जर्मन नहीं आती फ़िर भी सब- टाइटल में भी देख के मज़ा आ जाता है. यह फ़िल्म है - बर्लिन की दीवार के ढहने के समय और जर्मन गणराज्यों के एकीकृत होने के सालों में. किसी भी ऐतिहासिक घटना पर इससे बढिया satire (हिन्दी शब्द नही मालूम है!) और कोई नहीं हो सकता है. Rip Van Winkle-style satire है यह फ़िल्म. कहानी कुछ इस प्रकार है - नायक Alexander Kerner ने अपनी माँ को हमेशा एक पूर्वी जर्मनी के कट्टर समर्थक के रूप में देखा है. Alexander की माँ Christiane Kerne अपने बेटे को सरकारी विरोध रैली में देख के ८ महीने के लिए कोमा में चली जाती है. इन ८ महीनों में जर्मनी का एकीकरण हो जाता है. इस एकीकरण के साथ सतह सामाजिक और राजनितिक बदलाव को तो Alexander गले लगा लेता है. माँ की बिगड़ती हालत के कारण Alexander और उसके साथियों को माँ के पुराने कमरे और पुराने समय में लौट के आना पड़ता है. बेटा अपनी माँ के लिए सच्चाई से अलग पूरी दुनिया बसा देता है जो पुराने समय में टिकी हुई है. कुछ कथानक बेजोड़ हैं - पूरी की पूरी न्यूज़ बनाईं जाती है.... पुराने पूर्वी जर्मनी के हिसाब से. पुराने पूर्वी जर्मनी के उत्पादों को माँ के लिए खोज निकालना, कोका कोला के बिल्ल्बोर्ड को माँ से छुपा के रखना. जिस बदलाव के लिए Alexander लड़ाई करता है ... बदलाव आने पर उसी बदलाव को छुपाना की कोशिश करता है.इस फ़िल्म में राजनितिक अंडरटोन बहुत कम है.

एक बेटा का माँ के लिए प्यार और जटिल राजनितिक दशा और दृश्य इस फ़िल्म को उत्कृष्ट बनती है. कुछ सवाल यह फ़िल्म छोड़ जाती है हमारी जेहन में - हम क्या क्या कर सकते हैं अपनों के लिए - उनकी ज़िंदगी बचाने के लिए? हमारी सोच, विचारधारा, पैसे, भौतिकवादी जरूरतों या कहें तो आज़ादी से भी ज्यादा अहम् क्या हैं? हमारा झूठ कब झूठ नहीं है या हमारा छल-कपट कब छल-कपट नहीं है? थोड़े सब्दों में कहने की कोशिश की जाए तो - यह फ़िल्म आपको रुलाती है, हँसाती हैं और बिना पक्ष लिए एक सोच छोड़ के चली जाती है. कोई घटना या पात्र इतिहास नहीं बांटे हैं - हम आप जैसे छोटे लोगों भी अपना इतिहास बनाते हैं और हमें ही झेलना पड़ता है.

Monday 11 February 2008

एक अच्छी फ़िल्म - नोवेयर इन अफ्रीका (Nirgendwo in Afrika)

"One family's tale of a homeland lost... and a homeland found. "यह कहानी है, एक अपारम्परिक यहूदी परिवार की जो अपनी दूरदर्शिता से विश्व युद्ध के पहले जर्मनी छोड़ सकने में सफल हो जाता है. यह परिवार केन्या को अपना घर बनाने की कोशिश करता है. और यहाँ से शुरू होती है एक संवेदनशील फ़िल्म. यह एक बहुभाषीय फ़िल्म हैं और अफ्रीकी, जर्मन, यहूदी जैसे संस्कृति को जीवंत किया है. इस फ़िल्म के ज्यादातर संवाद जर्मन और स्वाहिली में हैं - थोड़ा अंग्रेज़ी भी है. पर सब-टाइटल इतने बखूबी में लिखे हुए हैं कि फ़िल्म कि सार्थकता कम नहीं हो पाती है. इसे २००२ के सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़िल्म का ओस्कर मिला है. पूरी कहानी एक बच्ची के द्वारा बयान कि गई है - पेशे से वकील Walter अपनी पत्नी Jettel और बच्ची Regina के साथ जर्मनी से भाग के केन्या में शरण लेते हैं. वाल्टर एक अंग्रेज़ के फार्म पर काम करने लगता है - जहाँ पानी जैसे मौलिक आवश्यकता की भारी कमी है. आदर्शवादी बाप और बच्ची समय और स्थान से समझौता कर लेते हैं और नई ज़िंदगी को अपना पाते हैं. दोनों स्वाहिली सीखते हैं, स्थानीय संस्कृति और लोगों से सामंजस्य बिठाते हुए ज़िंदगी अपना लेते हैं. माँ अपने पुरानी यादें, छोड हुए घर और वहाँ के लोगों, ऐशोआराम के सोच को नहीं छोड़ पाती है. माँ जर्मनी से जरूरी चीजों की जगह अपने लिए खूबसूरत कपड़े और बर्तन लेके आई हैं और घर पर जर्मनी बोलने पर ही जोर देती है. सबसे आकर्षक जेत्तेल का चरित्र है - जो एक स्वाधीन और परिपक्व सोच बना पाती हैं जीवन और परिवार के बारे में.
इस फ़िल्म में दिल को छू लेने वाले कथानक हैं. ओवुरा - जो पारिवारिक बावर्ची और जेत्तेल का संवाद. १२ सीलिंग कमाना और साहब और मेमसाहब के घर काम करना उससे पारिवारिक इज्ज़त देता है. वही घर से ओवुरा का घर, तीन बीवी और ६ बच्चों से दूर रहना फ़िर भी इज्ज़त पाना और उसकी छोटी जरूरतें झील की मछलियों से पूरा हो जाना. पश्चिम और पूरब के द्वंद को समझाने की कोशिश करता है. वहीं, पति-पत्नी और शादी के कई आयाम को सही सही चित्रित किया है. रेगिना का अपने अंग्रेज़ प्रिंसिपल से बातचीत - जिसमें वो कहती है की वह पढने में इसलिए अच्छा करती है क्यूंकि उसके पिता ६ पौंड की आय में ५ पौंड की फीस देते हैं. यहूदी बच्चों से अंग्रेज़ मिशनरी स्कूल में अलग सा बर्ताव. एक मज़बूत कहानी और पत्रों के साथ यह फ़िल्म प्रवासी परिवारों के दोहरी ज़िंदगी से अलग होने और स्थानीय जीवन को आत्मसात करने की सीख दे जाती है. अन्तिम दृश्य तो बहुत ही खूब है. समूची फ़िल्म, कैमरा और दृश्य १९४० के केन्या के जान पड़ते हैं.

Thursday 7 February 2008

जिंदगी रेस है..!

अभी अभी एक दोस्त(कॉलेज के दिनों के) से बात हो रही थी. बस बात होने लगी... पीयूष ये कर रहा है... मानव वहाँ अमेरिका में है... अंशुल की शादी ठीक हो गई... ब्रज के घर ले लिया...मुझे पूछा गया ... तुमने क्या किया... शादी किए?, - हाँ. घर लिए? - ना. भाई जिंदगी रेस है... कितनों से पीछे रह गए.... थोड़ा तेज चलो... कब तक स्लो मोसन में ही रहोगे.... ट्वेन्टी ट्वेन्टी के ज़माने में टेस्ट मैच में लगे हुए हो...बात खत्म हुई... फ़ोन रखा ... तब से सोच रहा था... क्या किया.. अभी तक... थोडी ग्लानी हुई.... फ़िर सोचा... छोडो जो नही किया क्या सोचा जाए... क्या करें ये सोचा जाए तो बेहतर होगा.... इसी उधेड़बुन में लगा था... कैसे तेज़ चला जाए... दौड़ के भी कुछ उखाडा नहीं जा सकता है अब. सारी बुद्धि लगाई पर जबाब नहीं मिल पाया.... सोचा चलो ब्लॉग तो लिख दो... दर्द कम होगा... समय कट जाएगा... बात आई गई खत्म हो जायेगी.... जिनकी रेस है वो दौडें... हम तो जिंदगी के मजे ले रहे हैं... :)
वैसे ही हमारी ज़िंदगी - पिछली पीढ़ी के मुकाबले ज्यादा तेज़ हो गई है... मुझे याद है पापा अपनी पीढ़ी के हिसाब से ज्यादा देर तक काम करने वाले माने जाते थे... क्यूंकि ७ बजे तक घर पहुच पाते थे.. एक हम हैं... रात नौ बजे घर पहुँच गए तो गनीमत है.... पर नौ बजे पहुँच के अच्छा लगता है कि आज ऑफिस में रुकना नहीं पड़ा. पता नहीं पिछली बार किस दिन बिना अलार्म के उठा था. इस तेज़ रफ्तार जिंदगी से एकदम मिलाने के लिए... फास्ट फ़ूड के चक्कर में फंस जाना पड़ा है... पता नहीं कितने दिन हो जाते हैं - अगर वीकएंड में ऑफिस जाना पड़े तो एक दाल, भात, चटनी, चोखा, सब्जी वाला खाना खाए हुए. हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस से होते हुए... टाइम्स ऑफ़ इंडिया कि सनसनीखेज खबरों पर भी नज़र फिसलने कि फुरसत नहीं रहती है... लगता है थोड़ा ऑफिस के काम या किसी सोफ्त्वारे कोड के बरे में सोच लिया जाए पड़ लिया जाए तो बेहतर होगा.... कहानिया तो छोड़ ही दीजिये... न्यूज़ भी कहानियाँ हो गई हैं... खाने, पढने कि बात तो छोड़ दीजिये.... शादियाँ भी फास्ट तरीके से इंटरनेट और चैट से फिक्स से होने लगी हैं.... कुछ साल पहले फिनलैंड में ek तेलगु सहकर्मी से मिला था .... मालूम पड़ा कि मंगनी कि रस्म वेब कैम पर सम्प्पन हुई थी... दो साल के बच्चे को प्ले स्कूल में ठेलने लगते हैं.... पता नहीं कब ऐसे रेस में हम दौड़ते रहेंगे.... और कब तक - छोटी छोटी तुच्छ दिखाने वाली परन्तु अनमोल और विस्तृत जीवन को रेस कि भेट चढ़ाते रहेंगे. शायद, कुछ दिनों में जिंदगी में अनुभव करना ही भूल जायें.