Sunday 14 December 2008

आर्थिक मंदी और आईटी कंपनियों का हालचाल...!

मंदी के इस दौर कारपोरेट जगत की पहली चिंता और सबसे बड़ी चिंता बचे और बने रहने की है। कुछ कारपोरेट के लिए यह समय होगा - अनपेक्षित अवसरों का। इन समय में एक ही चीज़ मायने रखेगी - बचे और बने रहे के लिए या अवसरों का फ़ायदा उठाने में - कैश। कैश इज किंग। इस मंदी का आकर और प्रकार अपने में इतना बड़ा है कि सारे सेक्टरों को अपने में समाहित कर लिया है। या फ़िर, इसके रिप्पल इफेक्ट ( ripple effect) से बच नहीं पायें हैं।
आज देश कि ज्यादातर आईटी कंपनी बॉडी-शौपिंग और ऑफ़-शोरिंग के ज़माने से आगे बढ के पश्चिमी कंपनी को चलने वाले इंजन कि तरह बन गए हैं। आमदनी का ८० फीसदी हिस्सा पश्चिमी कंपनी को ऐसी ही आवश्यक सेवाएँ देने आता है। अगर, लेहमन ब्रदर की तरह पश्चिमी कारपोरेट दिवालिया नहीं होते हैं तो - ऐसे आवश्यक सेवाओं को हटाना नामुमकिन सा है। कुछ छोटी कंपनी जो अपने क्षेत्र में ही शेर हैं - उनपर इस मंदी का असर जरूर पड़ेगा। जयादातर, छोटी कम्पनी२००१ के स्लो-डाउन के बाद की हैं। इनकी सेवाएँ महंगी और गैर-जरूरी हैं।
सो, इनको इस मंदी के दौर में बहुत कुछ सहना पड़ेगा। जिनके पास कैश किंग है वो तो इस वैतरणी को पार लगाग लेंगे। बड़ी कम्पनी - इन्फोसिस, टीसीएस, विप्रो जैसी कंपनी के पास कैश इतना ज्यादा है। दुसरे, इनकी जो कमजोरी थी - consultancy । जिसकी आज के समय पश्चिमी देशों में कोई जरूरत नही है।
ऐसा भी नहीं है कोई असर नहीं पड़ रहा है, इन बड़ी आईटी कंपनी पर।
लेहमन ब्रदर के गिरने के बाद कोई भी मल्टीमिलियन डील किसी भी बड़ी देसी कंपनी को नहीं मिल पाया है. और तो और, पुराने ग्राहक भी धौस देने लगे हैं - अपने सेवा के दाम कम करो या फ़िर हम तुम्हारे जैसे दुसरे के पास जायेंगे. यही नहीं, साल-डर-साल productivity improvement दिखाओ. मतलब यह - लाभ अब तीस और चालीस फीसदी नही होगा. वहीँ अमेरिका और यूरोप कारपोरेट विलय हो रहे हैं - जो लंबे समय में सिस्टम इंटीग्रेसन के काम में बढोतरी करेगा. विदेशी कंपनी के कुछ दिन और बचने के जुगाड़ में अल्पकाल में ऑफ़-शोरिंग के तहत कुछ काम फ़िर से देश में आएगा.
देशी कंपनिया को रख-रखाव के काम से आगे बढ के ट्रांस्फोर्मशनल डील की तरफ़ बढना होगा और अपने खर्च कम करने पड़ेगे. अपनी उपस्तिथि अंतर्राष्टीय स्तर पर दिखानी होगी... चीन से चिली तक, ऑस्ट्रेलिया से आस्ट्रिया तक. जो मदद कर सके स्थानीयकरण में और ग्राहक को विश्वास दिलाने में की हम तुम्हारे साथ है.

Thursday 11 December 2008

मंदी और आउटसौर्सिंग

मंदी के इस दौर में अगर कुछ बढ़ा तो उसमें से एक है - पश्चिम के देशों से हमसे मंदी तो नहीं आयात किया है. पर, हमारी मिडिया और कारपोरेट ने उसके डर को आयत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अब तक हम अमेरिकी और यूरोपियनों से से उनके डर और आर्थिक मंदी से हुए दुःख को तो आउटसोर्स नहीं कर पा रहे हैं. बस तलाश है, एक ऐसे उद्यमी की जो डर और छद्म दुःख के कारोबार को मिडिया और कारपोरेट से लेकर आईटी और बीपीओ की तरह जनजन तक पहुंचाए. बड़े फायदे हैं - कितना बढ़िया होता जब लोगों को लाखों की तनख्वाह मिलेगी - जॉन और मरिया के लिए ५ मिनट रोने के लिए. वैसे भी हमें ख़ुद के लिए रोने की फुर्सत कहाँ मिलती है.टीवी सोप देख और दिखा के थक चुके लोगों के लिए वैकल्पिक नौकरी व्यवस्था हो जायेगी - ट्रेनिंग देने की.अदि- इत्यादि.
हमारे कारपोरेट इसको सबसे अच्छा समय मान रहे हैं - अपने ओपेराशनल इफिसियेसी (operation efficiency) बढ़ाने के लिए, संस्थागत विसंगतियों को दूर करके लिए. बुरे समय के फैद्य उठाने का कारोबार भी जन्म ले चुका है. २००१ के आईटी स्लो-डाउन की याद ताज़ा हो आई है. उस समय भी यही दावे किए गए थे. ये सारे उपाय तात्कालिक साबित हुए - अगर कोई सही भी माने. क्या हुआ उनलोगों का जो २००१ में अपनी नौकरियों से निकले गए थे? या, फ़िर जिन्हें ऑफर लैटर तो मिले थे पर नौकरी नहीं मिल पाई थी? वो सारे लोग आज आईटी में ही विद्यमान है. जिन्हें नौकरी से निकला गया था या नौकरी नहीं मिल पाई थी.. एक साल सडकों की धुल खाने के बाद फ़िर से आईटी में घुस गए झूठे सच्चे अनुभव के सहारे. हम ले-ऑफ़, पिंक-स्लिप जैसे शब्द तो अमेरिका से मादी के साथ आयात कर लायें हैं. पर, उसके साथ करियर काउनसेल्लिंग, सोशल सिक्यूरिटी नही ला पायें.