Monday 7 January 2008

तारे ज़मीन पर - क्या नया, क्या पुराना?

आमिर खान निर्देशित फ़िल्म "तारे ज़मीन पर" हालिया प्रदर्शित हुई है और इंटरनेट पर इसको प्रवर्तक फ़िल्म करार देने कि होड़ मची है. इस फ़िल्म में कुछ चीज़ें बड़ी आसानी से कह दी गई है, पर कुछ मार्ग दर्शक बनने में इस फ़िल्म में कुछ कमियां है. पर, इस फ़िल्म को संवेदनशील जरूर कहा जा सकता है. इस फ़िल्म जो चीज़ें बखूबी कही गई है वो हैं -
१) समाज में सफलता की घुड़दौड़.
२) माँ-बाप के आकाँक्षाओं का शिकार होता बचपन
३) शैक्षिक परिवेश की खामिया - तिवारी सर को रटारटाया जबाब चाहिए, आर्ट टीचर का चालक फ़ेंक के मारना, सृजनात्मकता का कोई जगह नहीं होना.
४) दंड आधारित अनुशाषण सोच.
५) मध्यम वर्गीय परिवार की सफलता की भूख
६) हर बच्चे की अलग अलग जरूरत होती है और उसको थोड़े ध्यान और ज्ञान से मुख्यधारा में जोडा जा सकता है - ईशान राम निकुम्भ सर से अपने को इसलिए जोड़ पता है उनको अपने जैसा पाता है. पर शायद ही अपने को आइंस्टाइन और दा विन्ची से जोड़ पाता है.

जो बातें नहीं मुझे खटकी. उनमें से एक है - ईशान और राम निकुम्भ सर लड़ रहे हैं इस घुड़दौड़ की मानसिकता से. अगर ये कहें की ईशान राम निकुम्भ सर के मेहनत के बाद भी किस तरह पडी लिखी कर के बस पास भर कर पाता पर सबसे अच्छा पेंटर नहीं बन पाता तो क्या? यहाँ पर यह फ़िल्म बस एक बॉलीवुड फ़िल्म हो जाती है कि नायक हमेशा अव्वल करता है. और इस फ़िल्म भी, ईशान और राम निकुम्भ सर उसी घुड़दौड़ में शामिल हो जाते हैं जिससे वो लड़ने निकलते हैं.

बोर्डिंग स्कूल एक डरावनी जगह है - बच्चों को दंड देने के लिए वहाँ भेजा जाता है. यह बात बहुत पची नहीं. मेरे हिसाब से इस फ़िल्म में कथानक के हिसाब से मध्यम वर्गीय परिवार पेट काट के अच्छी शिक्षा के लिए बोर्डिंग स्कूल भेजता है. शैक्षिक परिवेश में एक भी अच्छी बात नहीं दिखाई गई है. पर वहीं राजन दामोदरन को लंगडा होते हुए भी स्कूल में दिखाया गया है.

एक और बात बहुत नहीं जमी - आत्मविश्वास का सफलता से जोडा जाना. अपने स्कूल और कॉलेज के सालों में हमें देखा कि बहुत से ऐसे बच्चे जो सफल होते हैं - सामाजिक मापदंड से - स्कूल के रिजल्ट में उनमें से कई आत्मसंशय कि स्तिथि में रह जाते हैं. मेरे हिसाब से सफलता एक आपेक्षिक शब्द है और उसका विश्वास से कोई लेना देना नहीं है.

ज्यादातर मध्यमवर्गीय माँ-बाप अपने बच्चों को बड़ा करते समय बहुत सारी चीज़ें सिखाते हैं. जरूरी नहीं है उन्हें सारी चीजों का ज्ञान हो और बच्चों की सारी समस्यायों का निराकरण कर सकें. बाप को कम से कम इस फ़िल्म में विल्लन ही दिखाया गया पर एक बिन्दु रेखांकित करने योग्य है की बाप अपने बच्चों के लिए जो भी बन पाता है वो करने की कोशिश करता है. बस थोड़ा सा सो कॉल्ड - जेनरेशन गैप है. :) कभी कभी तो ऐसा लगने लगता है ... यह फ़िल्म अनुशासन और मेहनत के विरोध में है. बच्चा जो करता है करने दो की तर्ज़ में. “तितली से मिलने जाते हैं पेडों से बातें करते हैं”

यह फ़िल्म हम जैसे लोगों की तरह बस सवाल उठा के छोड़ जाता है... उसका जबाब कैसे खोजे वह नहीं कर पाता है. बच्चे को Dyslexia पर दूर कैसे करें मालूम नहीं. इस फ़िल्म को "स्वदेस" की कड़ी में इस लिए नहीं रख पा रहा हूँ... की उसमें समस्याएं भी हैं और निदान भी.