Wednesday 27 February 2008

सपनों की लड़ाई

ड्राइंगरूम के मखमली सोफे,
एसी में बैठ कर
या फ़िर पंखें के डैनों से
बिखरी हवा में...
कुछ भी कह देना ...
कितना आसान सा लगता है...
"जियो ख़ुद के लिए...
अपनों के लिए "

या फ़िर अपने सपनों के लिए..."
सोच बैठता हूँ अकेलेपन में
सपनों के बारे में
ये आते हैं कहाँ से...
और झुंड बना के क्यों आते हैं -
आते हैं इतने सपने तो...
किसी धारावाहिक-से एक बेसिर पैर से जुदा
और अंतर्विरोध में जीते हुए...
क्यों करते हैं उद्वेलित सोच को...

और उद्दंड निरीह जीवन को..
सुना था किसी को टीवी के प्राइम टाइम में
किसी "रैग से रिचेस" -सी रिपोर्ट में
सपनों को सजों के सींचना पड़ता है।
पर मुझे तो -
भागना और पीछा करना पड़ता है
सपनों को अपना बनाने के लिए ...
बगावत करनी होती...
लड़ाई करनी होती है...
हर किसी से दुनिया से - थोडी और कभी कभी
अपनों से ... ज्यादा और हर सामने पर
ख़ुद से ... ताउम्र

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