Tuesday 28 August 2007

राखी, मिठाई और उपहार

इस तंग होती वस्तुनिष्ठ जिन्दगी में राखी एक मौका देता है अपने बचपन के उन छूटे बिसरे और टूटे यादों की संवेदानाओ को जोड़ने का. अर्चिच के कार्ड और नए बने त्योहारों में दोस्तों और गर्ल-फ्रिएँड्स के चक्कर में पारिवारिक रिश्तें साल भर कहीँ खो के रह जाते हैं. राखी के बहाने, भाई बहनों को और बहन भाइयों को याद करने के अलावा ... कुछ पुरानी यादें और निश्छल प्यार और दुलार का अहसास सहलाने लगता है।



बचपन में इस दिन का बहुत दिनों से इंतज़ार रहता था कि मिठाई मिलेगी, चंदन टिका लगेगा, पर एक शर्त भी थी - आज कोई झगड़ा या फसाद नहीं करना है. हाँ, हाथ में पैसे भी मिलेंगे पर बहनों को देने के लिए ... जो भी हो मेरे हाथ में कुछ पैसे तो आएंगे... हर रखी पर मुझे पापा और दादी कम से कम जरूर चिढा दिया करते थे... एक सुबह दादी मुझे ले के कहीँ घुमाने के लिए जा रहीं थीं पर हाथ में पूजा वाला डलिया नहीं था. मैंने सोचा कहीँ कालीबाग़ मन्दिर में फ़िर से आज मछली देखने जा रहे हैं तो दादी ने बताया कि मेरी छोटी बहन पैदा हुई है. अभी अभी एक रक्षा बन्धन गुजरा था - बस मैंने भी तपाक से कह दिया तब तो १० और रुपये का खर्चा बढ गया। १० रुपया बहुत बड़ी चीज़ हुआ करती थी मुझे ज्यादा पापा-माँ के लिए। पता नहीं किस कारण ये कहा था मैंने इसकी भी विवेचना की जा सकती है। आप कर सकते हैं तो कीजिये और मुझे भी बतायें।

आज भी, जब दादी नहीं हैं और पापा भी अब नहीं याद दिलातें हैं - तब भी वो दिन, और उन दिनों कि यादें हम भाई बहनों के लिए कार्ड भेजने और हैप्पी राखी कहने से ज्यादा कुछ याद दिलातें हैं... याद दिलातें हैं - आज कुछ पैसे हो गए हैं कम से कम १० रुपये तो जरूर हैं पर जब से होश संभाला या नौकरी शुरू की ... पता नहीं कहॉ से ये बात दिमाग में आयी की , राखी के दिन कुछ नहीं दूंगा बहनों को उपहार में।

2 comments:

उन्मुक्त said...

जब बहने अपने नसेरे चली गयीं हैं तो बचपन के उत्सव की यादें आती हैं। स
स्वागत है हिन्दी चिट्ठाजगत में।

उन्मुक्त said...

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जब बहने अपने बसेरे चली गयीं हैं तो बचपन के रक्षा बन्धन की यादें आती हैं।
स्वागत है हिन्दी चिट्ठाजगत में।