Wednesday 15 August 2007

आज देश सठिया गया (?)

युवाओं का भारत आज साठ का हो गया है। लगभग दो-तिहाई आबादी ३५ साल से कम उम्र के लोग हैं। किसी भी देश का कालचक्र भी मनुष्य कि तरह ही १०० साल से कम का होता है। मैं कोई उपहास नहीं कर रहा हूं, ये इतिहास कह रहा है। जब मैं यह सोचता हुं कि देश बुढे बाप की तरह सठिया गया है, तो सही ही लगता है। जो अपने चेहेते सन्तान (जो उसके अकांक्षाओं को पूरा करे या फिर मजबूत हो) सब कुछ देता है। और चुपचाप दबे सहमे रहने वले सन्तान के बारे में कुछ सोचते हुए भी सकुचाता है।

आज जब हम ये सोचते है कि इन साठ सालों में हमारी क्या क्या उपलब्धियॉ रही हैं तो गिनने से नहीं मिलती हैं। हमारे कुछ पूँजीपति विचारधारा में नये आये मित्र शायद यह गिनाये कि सब से ज्यादा अरबपति (डॉलर से) हमारे देश में हैं। देश को अब आईटी के नाम से जाना जाता है, सपेरे के देश के रुप में नहीं। मैं पूरी तरह से उनकी बात नहीं मनता हूं कि ये दो हमारी उपलब्धियॉ हैं। इसलिये नहीं कि मैं बकथेथरी करना हैं। हजार के करीब बिल्लयेन्-आयर हैं उसमें से भरतीय नागरिकता के केवल ३६। इसलिये कि भारत कि कोई आईटी कम्पनी दुनिया में पहले दस जगहो में नहीं आती हैं। हां, हमने अच्छा किया है पर इतन भी नहीं कि दंभ भर सकें। हमारि असलियत यह है कि सबसे ज्यादा अनपढ, सबसे ज्यादा गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोग यहॉं बसते हैं। भारत में समावेश की राजनिति से ज्यादा जरूरत है समावेश के आचार और विचार की। (मॉ को बेइमान नहीं कह्ते हैं इसलिये देश को बाप कहना पडा)

हम ये दंभ भरते हैं कि दुनिया का सबसे सक्षम लोकतंत्र हैं। सदेंह के साथ, पर ये बात मानी जा सकती है। संदेह इसलिये क्योंकि, इतने सक्षम लोकतंत्र मं इतने अक्षम नागरिक क्यों? मुम्बई की बरसाती बाढ पर करोडो का अनुदान, बिहार और आसाम में त्राहिमाम। विदर्भ और पंजाब के किसानों के कर्ज माफ, कलहांडी में अनाज को बच्चे मोह्ताज़। भारत आज उस चौरहे पर खडा है, जहॉं से एक रस्ता जाता है - सठिये हुए बाप बनने का और एक अपने सारे बच्चों को हमदम लेकर चलने का। देखना यह होगा की भारत मरता है एक बेइमान बाप बनके या अमर रह्ता है अपने हर बच्चे के समृद्धि के साथ।

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