Thursday 11 December 2008

मंदी और आउटसौर्सिंग

मंदी के इस दौर में अगर कुछ बढ़ा तो उसमें से एक है - पश्चिम के देशों से हमसे मंदी तो नहीं आयात किया है. पर, हमारी मिडिया और कारपोरेट ने उसके डर को आयत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अब तक हम अमेरिकी और यूरोपियनों से से उनके डर और आर्थिक मंदी से हुए दुःख को तो आउटसोर्स नहीं कर पा रहे हैं. बस तलाश है, एक ऐसे उद्यमी की जो डर और छद्म दुःख के कारोबार को मिडिया और कारपोरेट से लेकर आईटी और बीपीओ की तरह जनजन तक पहुंचाए. बड़े फायदे हैं - कितना बढ़िया होता जब लोगों को लाखों की तनख्वाह मिलेगी - जॉन और मरिया के लिए ५ मिनट रोने के लिए. वैसे भी हमें ख़ुद के लिए रोने की फुर्सत कहाँ मिलती है.टीवी सोप देख और दिखा के थक चुके लोगों के लिए वैकल्पिक नौकरी व्यवस्था हो जायेगी - ट्रेनिंग देने की.अदि- इत्यादि.
हमारे कारपोरेट इसको सबसे अच्छा समय मान रहे हैं - अपने ओपेराशनल इफिसियेसी (operation efficiency) बढ़ाने के लिए, संस्थागत विसंगतियों को दूर करके लिए. बुरे समय के फैद्य उठाने का कारोबार भी जन्म ले चुका है. २००१ के आईटी स्लो-डाउन की याद ताज़ा हो आई है. उस समय भी यही दावे किए गए थे. ये सारे उपाय तात्कालिक साबित हुए - अगर कोई सही भी माने. क्या हुआ उनलोगों का जो २००१ में अपनी नौकरियों से निकले गए थे? या, फ़िर जिन्हें ऑफर लैटर तो मिले थे पर नौकरी नहीं मिल पाई थी? वो सारे लोग आज आईटी में ही विद्यमान है. जिन्हें नौकरी से निकला गया था या नौकरी नहीं मिल पाई थी.. एक साल सडकों की धुल खाने के बाद फ़िर से आईटी में घुस गए झूठे सच्चे अनुभव के सहारे. हम ले-ऑफ़, पिंक-स्लिप जैसे शब्द तो अमेरिका से मादी के साथ आयात कर लायें हैं. पर, उसके साथ करियर काउनसेल्लिंग, सोशल सिक्यूरिटी नही ला पायें.

3 comments:

Neeraj Singh said...

बहुत ही सामयिक बात लिखी है आपने. वैसे मैंने भी अभी कुछ समय पहले अपना अनुभव लिखा है, कुछ इसी से मिलता जुलता. लिखते रहें.

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप ने बिलकुल सही लिखा। भारत में विदेशी कंपनियों को लाने वाली सरकार ने सोशल सीक्योरिटी के लिए कुछ नहीं किया।

दीपक कुमार भानरे said...

बहुत ठीक लिखा है आपने .
हमेशा यही होता है किसी भी चीज़ का इतना भय एवं डर खड़ा किया जाता है किंतु उससे बचने और सुरक्षा के उपाय पर बहुत ही कम गौर और चर्चा की जाती है . और न ही बचाव के समुचित कदम उठाये जाते हैं .