Sunday, 14 December 2008

आर्थिक मंदी और आईटी कंपनियों का हालचाल...!

मंदी के इस दौर कारपोरेट जगत की पहली चिंता और सबसे बड़ी चिंता बचे और बने रहने की है। कुछ कारपोरेट के लिए यह समय होगा - अनपेक्षित अवसरों का। इन समय में एक ही चीज़ मायने रखेगी - बचे और बने रहे के लिए या अवसरों का फ़ायदा उठाने में - कैश। कैश इज किंग। इस मंदी का आकर और प्रकार अपने में इतना बड़ा है कि सारे सेक्टरों को अपने में समाहित कर लिया है। या फ़िर, इसके रिप्पल इफेक्ट ( ripple effect) से बच नहीं पायें हैं।
आज देश कि ज्यादातर आईटी कंपनी बॉडी-शौपिंग और ऑफ़-शोरिंग के ज़माने से आगे बढ के पश्चिमी कंपनी को चलने वाले इंजन कि तरह बन गए हैं। आमदनी का ८० फीसदी हिस्सा पश्चिमी कंपनी को ऐसी ही आवश्यक सेवाएँ देने आता है। अगर, लेहमन ब्रदर की तरह पश्चिमी कारपोरेट दिवालिया नहीं होते हैं तो - ऐसे आवश्यक सेवाओं को हटाना नामुमकिन सा है। कुछ छोटी कंपनी जो अपने क्षेत्र में ही शेर हैं - उनपर इस मंदी का असर जरूर पड़ेगा। जयादातर, छोटी कम्पनी२००१ के स्लो-डाउन के बाद की हैं। इनकी सेवाएँ महंगी और गैर-जरूरी हैं।
सो, इनको इस मंदी के दौर में बहुत कुछ सहना पड़ेगा। जिनके पास कैश किंग है वो तो इस वैतरणी को पार लगाग लेंगे। बड़ी कम्पनी - इन्फोसिस, टीसीएस, विप्रो जैसी कंपनी के पास कैश इतना ज्यादा है। दुसरे, इनकी जो कमजोरी थी - consultancy । जिसकी आज के समय पश्चिमी देशों में कोई जरूरत नही है।
ऐसा भी नहीं है कोई असर नहीं पड़ रहा है, इन बड़ी आईटी कंपनी पर।
लेहमन ब्रदर के गिरने के बाद कोई भी मल्टीमिलियन डील किसी भी बड़ी देसी कंपनी को नहीं मिल पाया है. और तो और, पुराने ग्राहक भी धौस देने लगे हैं - अपने सेवा के दाम कम करो या फ़िर हम तुम्हारे जैसे दुसरे के पास जायेंगे. यही नहीं, साल-डर-साल productivity improvement दिखाओ. मतलब यह - लाभ अब तीस और चालीस फीसदी नही होगा. वहीँ अमेरिका और यूरोप कारपोरेट विलय हो रहे हैं - जो लंबे समय में सिस्टम इंटीग्रेसन के काम में बढोतरी करेगा. विदेशी कंपनी के कुछ दिन और बचने के जुगाड़ में अल्पकाल में ऑफ़-शोरिंग के तहत कुछ काम फ़िर से देश में आएगा.
देशी कंपनिया को रख-रखाव के काम से आगे बढ के ट्रांस्फोर्मशनल डील की तरफ़ बढना होगा और अपने खर्च कम करने पड़ेगे. अपनी उपस्तिथि अंतर्राष्टीय स्तर पर दिखानी होगी... चीन से चिली तक, ऑस्ट्रेलिया से आस्ट्रिया तक. जो मदद कर सके स्थानीयकरण में और ग्राहक को विश्वास दिलाने में की हम तुम्हारे साथ है.

Thursday, 11 December 2008

मंदी और आउटसौर्सिंग

मंदी के इस दौर में अगर कुछ बढ़ा तो उसमें से एक है - पश्चिम के देशों से हमसे मंदी तो नहीं आयात किया है. पर, हमारी मिडिया और कारपोरेट ने उसके डर को आयत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अब तक हम अमेरिकी और यूरोपियनों से से उनके डर और आर्थिक मंदी से हुए दुःख को तो आउटसोर्स नहीं कर पा रहे हैं. बस तलाश है, एक ऐसे उद्यमी की जो डर और छद्म दुःख के कारोबार को मिडिया और कारपोरेट से लेकर आईटी और बीपीओ की तरह जनजन तक पहुंचाए. बड़े फायदे हैं - कितना बढ़िया होता जब लोगों को लाखों की तनख्वाह मिलेगी - जॉन और मरिया के लिए ५ मिनट रोने के लिए. वैसे भी हमें ख़ुद के लिए रोने की फुर्सत कहाँ मिलती है.टीवी सोप देख और दिखा के थक चुके लोगों के लिए वैकल्पिक नौकरी व्यवस्था हो जायेगी - ट्रेनिंग देने की.अदि- इत्यादि.
हमारे कारपोरेट इसको सबसे अच्छा समय मान रहे हैं - अपने ओपेराशनल इफिसियेसी (operation efficiency) बढ़ाने के लिए, संस्थागत विसंगतियों को दूर करके लिए. बुरे समय के फैद्य उठाने का कारोबार भी जन्म ले चुका है. २००१ के आईटी स्लो-डाउन की याद ताज़ा हो आई है. उस समय भी यही दावे किए गए थे. ये सारे उपाय तात्कालिक साबित हुए - अगर कोई सही भी माने. क्या हुआ उनलोगों का जो २००१ में अपनी नौकरियों से निकले गए थे? या, फ़िर जिन्हें ऑफर लैटर तो मिले थे पर नौकरी नहीं मिल पाई थी? वो सारे लोग आज आईटी में ही विद्यमान है. जिन्हें नौकरी से निकला गया था या नौकरी नहीं मिल पाई थी.. एक साल सडकों की धुल खाने के बाद फ़िर से आईटी में घुस गए झूठे सच्चे अनुभव के सहारे. हम ले-ऑफ़, पिंक-स्लिप जैसे शब्द तो अमेरिका से मादी के साथ आयात कर लायें हैं. पर, उसके साथ करियर काउनसेल्लिंग, सोशल सिक्यूरिटी नही ला पायें.

Sunday, 26 October 2008

इस दिवाली क्या खरीदें?

बड़ी असमंजस की स्तिथि है कि इस डूबते शेयर बाज़ार, डूबती अर्थवयवस्था से डरे-सहमे आम आदमी ख़रीदे तो क्या ख़रीदे। अपने आज के लिए कुछ करें या अपने कल को सवारने कि फ़िर से कोशिश कि जाए? दिवाली में दोस्तों रिश्तेदारों के लिए १०० रुपये की पेप्सी की दो-लीटर वाली दो बोतल ली जाए या फ़िर IDFC के दो शेयर ले लें। महगाई बढने के साथ ही प्लान बन चुका था - इस बार दो किलो कि जगह एक किलो ही काजू बर्फी लेंगे. काम तो चल ही जाता है. फ़िर, बासी खाने से क्या फायदा । पर, यह कल या आज वाला सवाल मुह बाये फ़िर से खड़ा हो जाता है - एक किलो काजू बर्फी या टेक महिंद्रा का एक शेयर। पटाकों में तो पहले ही आग लगा चुका था। पर, समझ नहीं पड़ रहा था कि दोस्तों को क्या बताउंगा कि हर साल पटके के लिए मारा-मारी करने वाला इस बार शांत क्यों हो गया है। एक आईडिया का बल्ब जला - कल से "सेव अर्थ" का मेंबर हो गया हूँ। अश्वथामा के दर्द में द्रोणाचार्य भी मर जायेंगे और झूठ भी नहीं होगा। क्या आईडिया है सर जी।

विदेशों की तरह, अब देश में भी नौकरियों से खुले दरवाज़े से लोगों निकलना शुरू हो गया है। तो, डर लगना लाजमी हो गया है - ख़ुद तो कम लगता है - सोफ्टवेयर २००१ के हालात एक बार झेलने के बाद। जहाँ ख़ुद की नौकरी तो नहीं गई थी पर कुछ बहुत ही करीबी दोस्तों की नौकरी चली गई थी। इस बार सब ( सारे नाते रिश्तेदारों को, आस-पड़ोस वालों को ) को आर्थिक मंदी की ख़बर ज्यादा मिलने लगी है। इस से मुझे कोई तकलीफ नहीं है की लोगों को मुझसे ज्यादा खबरें मिलती है। २००१ के दौर में ये खबरें भी होती है पर ई-मेल के द्वारा. तकलीफ यह होती है कि मिडिया आज इन्ही ई-मेलों को समाचार बना के दिखा जाता है। मिडिया ने डर के बाज़ार की बिसात बिछा दी है। अब तो आलू टमाटर खरीदने में डर लगने लगा है। कल इनके दाम भी दुगुने हो गए और नौकरी चली गई तब क्या करोगे?

Wednesday, 21 May 2008

देसी कार्पोरेट पर एक विदेशी का सवाल

कल अपनी कंपनी जिसकी मैं नौकरी बजाता हूँ , उसके काम के सिलसिले में एक भावी ग्राहक से बात कर रहा था. आज कल यूरोप के देशों में आईटी vendor के चुनाव में एक सवाल बड़ा अहम् हो गया है. वह सवाल है - आपकी कंपनी सामाजिक जिम्मेदारी (corporate social responsibility) के लिए क्या-क्या करती है? ज्यादातर भार्तिये कंपनी के नुमाइंदों के लिए इस टोपिक पर बात बनने की ही बात होती है. पर गलती से मेरी कंपनी बाकि लोगों से ज्यादा कुछ कर देती है और दिखाती कम है है तो बोलने में एक दंभ रहता है.पर कल, थोड़ा सकते में आ गया था - वह भावी ग्राहक - अंग्रेज़ है और भारत के बारे में थोड़ा ज्यादा जानता है यूरोपियों से, अमेरिकियों से तो बहुत ज्यादा. सवाल था - आप जो जो करते हैं वो तो बहुत बढिया है पर क्या आपको लगता इन्हीं लोगों को जबसे ज्यादा जरूरत है? अगर नहीं, तो आप दलितों, भारत के गांवों और बाकी पिछडे वर्गों के लिए क्यों नहीं कुछ करते हैं?इसी सवाल का जबाब खोजने के लिए मैं टॉप १० देशी आईटी कंपनी के वेबसाइट पर सर्च करने के देखना चाहा कि कौन कितने पानी में है।

ज्यादातर कंपनी के कार्यक्रम पैसे दे के छोटे मोटे कार्यक्रम में नाम बनाने की है लम्बे समय तक चलने वाले काम में अभिरुचि नहीं है। ज्यादातर कार्पोरेट की उदासीनता समाज से थोडी ज्यादा ही नज़र आती है। इन्फोसिस जैसी कंपनी wealth generation को अपने सामाजिक दायित्व के दायरे में ला के छोड़ देती है। इन वर्गों के लिए किसके क्या कार्यक्रम हैं :

१) टी सी एस - देखने से यह लगता है - यह कंपनी सच में कुछ करती है। पूरी रिपोर्ट है की सामाजिक योगदान क्या है और क्या योजनाएं हैं। कंप्यूटर आधारित साक्षरता प्रोग्राम (उर्दू, तेलगु, हिन्दी, बंगला, तमिल, गुजरती, मराठी, ओरिया में उपलब्ध है) से १ लाख लोग लाभान्वित हो रहे हैं। एम्-कृषि (किसानों के लिए मोबाइल आधारित सॉफ्टवेयर) . राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के लिए आंध्र सरकार को सोफ्टवेयर उपलब्ध कराया. ( स्रोत:

http://www.tcs.com/about/corp_responsibility/Documents/TCS_Corporate%20_Sustainability_Report_2007_Final.pdf)

२) इन्फोसिस - अपने आप पर फुले न समाती कंपनी का बस एक कर्यक्रम है। रूरल रिच प्रोग्राम - ५६ स्कूलों में पांचवे, छःठे और सातवें कक्षा के ७७४२ को कंप्यूटर सिखाया गया। (स्रोत: इन्फोसिस वार्षिक रिपोर्ट २००७)

३) विप्रो - इन दस कंपनी में बस विप्रो के वेबसाइट पर कुछ नहीं मिल पाया और गूगल बाबा की मदद लेनी पड़ी। पर जो मिला वो संतोषजनक था। अजीम प्रेमजी फोंदेशन के अलावा के सरे क्रियाकलाप हैं।
Wipro अप्प्ल्यिंग थौत इन स्कूल्स प्रोग्राम के तहत १५ शहरों में १०० से ज्यादा स्कूल में योगदान कर रहे हैं।( स्रोत: http://sca.savethechildren.se/upload/scs/SCA/Publications/Corporate%20social%20responsibility%20and%20childrens%20rights%20in%20South%20Asia.pdf)

४) सत्यम - जो भी दिखा उसमें कुछ शानदार कहने लायक नहीं लगा। या फ़िर कहें तो कुछ भी विशेष नहीं सिवाय सर्व शिक्षा अभियान या १-२ गैर-सरकारी संथाओं से जुड़े रहने के अलावा. (स्रोत: http://www.satyam.com/society/satyam_foundation.asp )

५) एच सी एल - न इनकी साईट पर कुछ कहने लायक बात मिली नहीं गूगल बाबा की कुछ मदद कर पाये। ख़ुद क्या क्या करते हैं आप ख़ुद स्रोत के १९ वे पृष्ठ पर देख सकते हैं। (स्रोत: http://www.hcl.in/files/Corporate%20Presentation%20-%20For%20website%20-%2031%20Mar08.pdf)

६) पटनी कंप्यूटर - इस कंपनी के न वेबसाइट पर कुछ मिला न गूगल बाबा अपना मुह खोल पायें.

७) आई-फ्लेक्स - इनका भी यही हाल। सुनामी और भूकंप पीडितों के अलावा किसी की मद नहीं कर पायें। (स्रोत: http://www.iflexsolutions.com/iflex/company/SocialInitiatives.aspx?mnu=p1s5)

८) टेक-महिंद्रा - बालिकाओं और शिक्षा के क्षेत्र में कुछ काम करते हैं पर उल्लेख नहीं है क्या क्या करते हैं। कोई १५ करोड़ का सीड फंड भी है। (स्रोत: वार्षिक रिपोर्ट)

९) कोग्निजेंट टेक्नोलॉजी - इस अमेरिकी कंपनी के न वेबसाइट पर कुछ मिला न गूगल बाबा अपना मुह खोल पायें। वैसे इनसे मुझे कम से कम उम्मीद नहीं थी।

1०) एम्-फैसिस - कंपनी के वार्षिक रिपोर्ट में HIV/AIDS की जानकारी देने अलावा कुछ भी गिना पाना मुश्किल लगा.

Monday, 12 May 2008

विदेशी फिल्में कैसे देखे?

ज्यादातर हम जैसे लोगों के लिए जो मारधाड़ से भरपूर, या नाच गाना वाली मसाला या मेलो-ड्रामा वाली फिल्में देख के बड़े हुए हैं। उनके लिए, बहुत दिक्कत होती है उसी विधा में नए ढंग की फ़िल्म के साथ समन्वय बिठाते हुए उसको सराहना. बहुत सारी विदेशी फिल्में (आज कल तो धूम टाइप देसी फिल्में ) भी अमेरिकी सिनेमा से बहुत ज्यादा प्रभावित होती है. पर, बहुत ऐसी फिल्में हैं जो अभी भी अमेरिकी कला शैली से अछूती हैं. विदेशी फिल्मों से मेरा मतलब नॉन-अमेरिकी (यानि ब्रिटिश इंग्लिश या आस्ट्रेलियन फिल्में चलेंगी) और नॉन-बॉलीवुड फिल्मों से हैं।

सबसे पहले जरूरी है की आप मूड बनाये और सोच लें की आप विदेशी फ़िल्म देख सकते हैं। फ़िर इंटरनेट पर अपना शोध चालू कीजिये। किन भाषाओं या किस देशों में आपकी अभिरुचि है या आप जानते हैं उनके संस्कृति के बरे में? इस सवाल का जवाब - आपको शायद एक लिस्ट के शक्ल में मिलेगा. उसके बाद आप इस लिस्ट में से एक या दो देशों या भाषा को चुन के गूगल बाबा के पास त्राहिमाम करते हुए जा सकते हैं.गूगल बाबा की मदद से एक लिस्ट बन जायेगी कोई २० फिल्मों की. इन फिल्मों की समीक्षा जरूर पढें. सारी २० फिल्मों की जानकारी के बाद १०-१५ से ज्यादा फिल्में नहीं बच सकेंगी...

कम से कम १०-१५ फिल्मों की लिस्ट तो जरूर रखें क्यूंकि इस में से आधी तो आपको आसानी से मिलने से रहीं। लेकिन सवाल आता है ये मिलेंगी कहाँ? अगर आप भारत से बाहर हैं तो डीवीडी रेंटल के इंटरनेशनअल सेक्शन में मिल जाएँगी. देश में बंगलोर, मुम्बई में तो मिल सकती है॥ बाकी जगहों का कोई आईडिया नही है मुझे. फ़िर एक और जगह बचेगी - इंटरनेट... खरीद कर भी देख सकते हैं या चोरी छुपे भी... फिल्मों को चोरी करके देख लेना कोई बड़ा पाप नही है. छोटा तो हम हरदम करते ही रहते हैं. :) ये विदेशी फिल्में अगर पुरानी हुई तो डब मिलेगी. नई हुईं तो सब-टाइटल वाली की ज्यादा उम्मीद है. मेरी माने तो, डब की वाली फ़िल्म से बेहतर होगी सब-टाइटल वाली. अगर सब-टाइटल वाली नहीं मिलती है तो डब वाली लेने में भी बहुत दिक्कत नही है. पर मज़ा थोड़ा कम हो जाएगा. शुरू शुरू में ऐसा लगेगा, सिनेमा देखा जाता है... पड़ा थोड़े ही. मुझे भी ऐसा ही लगा था. पर फ़िर से मेरी ही मानिये... हम लोग दो (या तीन यहाँ पर) काम एक साथ कर सकते हैं यानि सिनेमा देखना, सब-टाइटल पड़ना और तीसरा आवाज़ के शब्दों को अनसुना करते हुए भाव समझना - आराम से कर सकते हैं. भरोसा नहीं हो रहा हो तो दूरदर्शन वाले समय में १:३० बजे वाली फिल्में याद कीजिये. इस लिए सिनेमा लेने के पहले या डाउनलोड करने से पहले सब-टाइटल हैं या नहीं जरूर देख लें. कोशिश रहें की शुरुआत में थियेटर नहीं जा के देखे तो बेहतर हैं.

दूसरी बात - किस तरह की फ़िल्म देखें। शैली और genre की देखी जाए. फ़िर इसमें गूगल बाबा और आप अपनी मदद कर सकते हैं. या फ़िर कोई सिनेमची दोस्त भी मदद कर सकता है. गूगल बाबा से दो तरह की मदद मंगनी होगी - जैसे फ़िल्म जर्मन हुई तो - गूगल के जर्मन साईट पर जा कर जर्मन लोगों की प्रतिक्रिया और समीक्षा जानने की कोशिश करें. पर नॉन-जर्मन समीक्षा और प्रतिक्रिया आपको ज्यादा चीज़ें बतलायेगा. हाँ, एक और बात... अमेरिकी लोगों की प्रतिक्रिया में थोड़ा बट्टा (डिस्काउंट) दे दें. शैली तो आपको ही पसंद करनी होगी. पर शुरू शुरू में प्लेन कॉमेडी न लें अगर उस भाषा या देश के कल्चर के बरे में कम मालूम है. क्योंकि कुछ डायलाग, कथानक, रूपक तो पल्ले ही नहीं पड़ेंगे. मेरे गुरुजनों ने तो रोमांटिक शैली ही चुनीं थी मेरी लिए। समझाना आसान भी होता है - कमोबेश सारी फिल्मों एक सी कहानी होती है।

फ़िल्म को देखने के लिए ऐसे समय का चुनाव करें जब आपको कोई डिस्टर्ब न करें. थोड़ा धयान लगाने होगा सब-टाइटल पढने में. जब मूड ठीक नहीं हो या दिमाग में कुछ चल रहा हो तो जरूरी है ऐसी फ़िल्म न देखें. शुरुआत में ये फिल्में मनोरंजन कम इन्फो-टेनमेंट ज्यादा होंगी. धीरे धीरे, आपका मनोरंजन ज्यादा करने लगेंगी और आप इस फ़िल्म की तकनीक, कला और देश की संस्कृति को भी सराहने लगेंगे. "हैप्पी व्युइंग".

मेरी पहली विदेशी फिल्म

मुझे विदेशी फिल्में देखने का शौक चर्राया था जब दश्वी की परीक्षा के बाद बैठा था। एक दोस्त के भाई थे नए नए अमेरिका से लौटे थे - साथ में कुछ विडियो कैसेट लाये थे. एक थी - "प्रेत्टी वूमन". इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ता था, क्लास में इंग्लिश में बात भी कर लेता था, परीक्षा भी इंग्लिश में दे कर पास हो जाया करता था. पर, इंग्लिश उस समय तक अपनी भाषा न हो कर विदेशी ही थी. उस समय तक सिनेमाची हो गए थे. शायद ही कोई सिनेमा था जो छुटता था. पुरानी फिल्में टीवी पर या अपने बोर्डिंग स्कूल में देख लेता था. नई फिल्में स्कूल से भाग के बगल के कसबे में देख लेता था. पर यह समझ में नहीं आ रहा था की भाई सिनेमा देखने का भी कोई मज़ा होगा जब भाषा ही अपनी न हो. कुछ टू समझ में ही नही आएगा. न्यूज़ व्युज़ तक तो ठीक है अंग्रेज़ी... पर सिनेमा और गाने अपने पल्ले नहीं पड़ते थे... एक आध बार देखने की कोशिश की आधी से अधिक बातें तो समझ में आती ही नही थी. पर दश्वी के बाद - घर पर बैठे थे और इन अमेरिकी भाई जान से बहुत इम्प्रेसड थे ... क्या फर्राटे की अंग्रेज़ी बोलते थे, विदेश की क्या रंगीन कहानिया सुनाते थे... सो उनको इम्प्रेस करने के लिए जब फिल्मों की बात चली तो हम भी खूब बोले - पर अपना ज्ञान तो हिन्दी फिल्मों तक आ के खत्म हो जाता था. क्या तुम लोग अभी भी अभी भी राज कपूर, राजेश खन्ना और अमिताभ में पड़े हुए हो... अंग्रेज़ी देखे हो....? असल फ़िल्म तो हॉलीवुड की होती है... अपना हाल भी वही था "शूल" फ़िल्म के तिवारी जी जैसा... "जब सीन काट लिया त अंग्रेज़ी सिनेमा कैसा?" सोचे चलो - देख लिया जाए अंग्रेज़ी क्या होता है... फ़िल्म चालू हुई - पहला चीज़ नोट किए की गाड़ी उल्टा चल रहा है. अरे भाई, दाहिने तरफ़ सड़क के चल रहा है और पुलिस वाला भी पीछे नहीं पड़ा है. भाई जान खूब हँसे हमपर. बोले बुरबक रह जाओगे तुमलोग अमेरिका है. फ़िर त पुरा सिनेमा देख लिया एक चू त नही निकला मुह से. कितना बार भाई जान से सुना जाए - बुरबक. पर सिनेमा में हिरोइन सुंदर लगी. फ़िल्म में भी काफी melodramatic लगी. टाइटल सोंग खूब पसंद आया. उसके बाद से पता नहीं कितने बार ये सिनेमा देख चुके. पर इतना समझ में आ गया था की विदेशी सिनेमा भी देखा जा सकता है। थैंक यू भाई जान।

Tuesday, 6 May 2008

वाईमर (weimar) - १८वी सदी का जर्मन शहर

वायमर जर्मनी में एक छोटा और सांस्कृतिक शहर है। फ्रैंकफर्ट और बर्लिन से लगभग तीन घंटे में पहुँचा जा सकता है। जर्मन इतिहास और संस्कृति में इस १००० साल पुराने शहर का सर्वोच्च स्थान है. समूचा जर्मनी आपको कहीं न कहीं से नया लगेगा और साडी इमारतें दुसरे विश्व युद्ध के बाद की बनी दिखेंगी. पर, वायमर को दूसरे विश्व युद्ध की त्रासदी कम ही झेलनी पड़ी. वायमर के मुख्य वाशिंदों में Bach, Goethe, Schiller, Lizst जैसों का नाम शुमार है.
पर 1919 में पहले विश्व युद्ध के बाद इसी वायमर में वायमर गणराज्य (Weimar Republic ) और जर्मनी में लोकतंत्र की नींव पड़ी. उसके बाद का समय वायमर के दुखी समय का है. वायमर गणराज्य का पतन, हिटलर का उत्थान और फ़िर दूसरे विश्व युद्ध के बाद सोवियत आर्मी का आगमन. जर्मनी के एकीकरण के बाद से वायमर में फ़िर से रंग लौट के आया है. फ़िर से यहाँ के पार्कों में और काफ़ी हॉउस में कलाकारों और बुद्धिजीवियों की भीड़ देखी जा सकती है.


शिल्लर और गोथे की प्रतिमा

गोथे का गार्डन हॉउस पार्क ऍम देर इल्म (Park am der Ilm)

पार्क ऍम देर इल्म (Park am der Ilm) - इसी पार्क में गोथे का गार्डन हॉउस है और इल्म नदी इस पार्क से हो कर बहती है.





पार्क ऍम देर इल्म (Park am der Ilm) - इसी पार्क में गोथे का गार्डन हॉउस है और इल्म नदी इस पार्क से हो कर बहती है.









शेक्सपियर की प्रतिमा पार्क ऍम देर इल्म में... (मुझे पूछने पर पता नहीं चला की इनके पाँव के निचे खोपडी क्यों पड़ी है.

होटल एलेफैंत की एक बालकनी (इसी बालकनी पर हिटलर खड़ा हो के लोगों को संबोधित करता था)




वायमर का माल - अत्रियम । मॉल में भी कला दिख जाती है।









दूसरे विश्व युद्ध के सोवियत सिपाहियों की सिमेट्री । हर पत्थर पर ६ नाम हैं। तीन एक तरफ़ ३ दूसरी तरफ़। इस स्थल के गेट पर का कुंडा हसिया-हथोड़ा की सकल का बना हुआ है। तस्वीर नहीं लगा पा रहा हूँ.








ग्राफिती - स्ट्रीट आर्ट।